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________________ पंचसंग्रह शब्दार्थ-छप्पन्नदोसयंगुल-दो सौ छप्पन अंगुल प्रमाण, सूइपएसिसूचिप्रदेश द्वारा, भाइओ-भाजित, पयरो-प्रतर, जोइसिएहि-ज्योतिष्क देवों द्वारा, हीरइ-अपहृत किया जाता है, सट्ठाणे-स्वस्थान में, त्थीय-- स्त्रियाँ (देवियाँ), संखगुणा--संख्यातगुणी । गाथार्थ-दो सौ छप्पन अंगुलप्रमाण सूचिप्रदेश द्वारा विभाजित प्रतर ज्योतिष्क देवों द्वारा अपहत किया जाता है। स्वस्थान में देवियाँ सख्यातगुणी हैं। विशेषार्थ-ज्योतिष्क देवों का प्रमाण बतलाने के लिये गाथा में कहा है कि दो सौ छप्पन अंगुलप्रमाण सूचिश्रेणि में रहे हुए आकाशप्रदेशों द्वारा प्रतर के आकाशप्रदेशों को विभाजित करने पर जो प्राप्त हो, उतने ज्योतिष्क देव हैं।' अथवा दो सौ छप्पन अंगुलप्रमाण सूचिश्रेणि जितने प्रतर के जितने खण्ड हों, उतने ज्योतिष्क देव हैं। अथवा दो सौ छप्पन अंगुलप्रमाण सूचिश्रोणि जैसे एक-एक खण्ड को एक साथ समस्त ज्योतिष्क देव अपहृत करें तो एक ही समय में वे समस्त देव सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करते हैं। इन तीनों का तात्पर्य एक ही है तथा चारों देवनिकाय में अपने-अपने निकाय के देवों की अपेक्षा देवियाँ संख्यातगुणी हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। १ यहाँ बताई गई ज्योतिष्क देवों की संख्या से अनुयोगद्वार और प्रज्ञापना सूत्र में बताई गई संख्या भिन्न है। वहाँ कहा है-दो सौ छप्पन अंगुल प्रमाण सूचिश्रेणि में जितने आकाशप्रदेश हों, उनका वर्ग करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उतने प्रदेशप्रमाण घनीकृत लोक के एक प्रतर के जितने खंड' हों, उतने कुल ज्योतिष्क देव हैं । गोम्मटसार जीवकांड गाथा १६० में ज्योतिष्क देवों का प्रमाण यह बताया है दो सौ छप्पन प्रमाणांगुलों के वर्ग का जगत्प्रतर में भाग देने से जो लब्ध आये, उतना ज्योतिष्क देवों का प्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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