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________________ बौद्ध दर्शन भी प्रवर्तक धर्म का विरोधी है, किन्तु वह स्वतन्त्र नहीं बल्कि दूसरे और तीसरे पक्ष के मिश्रण का उत्तरवर्ती विकास है। उक्त पक्ष या वर्ग भेद वादों की स्वभावमूलक उग्रता-मृदुता एवं कतिपय अंशों में तत्त्वज्ञान की अपनी-अपनी प्रक्रिया पर अवलम्बित है। फिर भी इस लक्ष्य के प्रति सर्वात्मना मतैक्य रहा कि जीव अपनी मौलिक अवस्था को प्राप्त कर संसार से मुक्त हो, पुनः संसार दशा को प्राप्त न करे । उपर्युक्त अंकन से यह तो अवगत हो चुका है कि आस्तिकवादी चिन्तकों की प्रवर्तक और निवर्तक धाराओं ने कर्म के बारे में विचार किया है। लेकिन प्रवर्तकधारा एक निश्चित परिधि से आगे नहीं बढ़ी, शुभ कर्म और उसके फलभोग तक केन्द्रित रही। जिससे वह जीव को उसकी असीम और शद्ध शक्ति का वोध नहीं करा सकी । लेकिन निवर्तकधारा ने स्पष्ट घोष किया कि जीव का संसार में भ्रमण करते रहना विडम्बना है। इस विडम्बनापूर्ण स्थिति के प्रति समर्पित रहने में जीव के पुरुषार्थ का प्रांजल रूप प्रगट नहीं होता है । वह तो तभी प्रगट होगा जब मुक्त, सिद्ध, बुद्ध होगा, समस्त दुःखों का अन्त करेगा। समस्त दुःखों का अन्त तभी हो सकेगा जब उसके कारण का क्षय होगा और वे कारण हैं कर्म । जा निवर्तकधारा परम पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष और उसके प्रतिबंधक कारण के रूप में कर्म को स्वीकार कर चुकी तब इसको मानने वाले जितने भी चिन्तक थे, उन्होंने मोक्ष के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के साधनों एवं प्रतिबंधक कारण कर्मतत्त्व के विषय में विचार किया। यह विचार करना कर्म और उसके भेदों की परिभाषायें कर देने तक सीमित नहीं रहा, किन्तु कार्यकारण की दृष्टि से कर्मतत्त्व का विविध प्रकार से वर्गीकरण किया । कर्म की फलदान शक्तियों का विवेचन किया। विपाक की कालमर्यादा का चिन्तन किया । कर्मभेदों के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार किया। इस प्रकार निवर्तकधारा में व्यवस्थित एवं बृहत्रमाण में कर्म विषयक साहित्य निर्मित हो गया और उत्तरोत्तर नये. नये प्रश्नों और उनके समाधान के द्वारा उसकी वृद्धि होती रही। प्रारम्भ में तो यह प्रवृत्ति व्यवस्थित रूप से चली। जब तक इन सरका Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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