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________________ (२) मार्गणास्थान-अधिकार। ___मार्गणा के मूल भेद। गइइंदिए य काये, जोए वेए कसायनाणेसु। संजमदंसणलेसा-भवसम्भे संनिआहारे ।।९।। गतीन्द्रिये च काये, योगे वेदे कषायज्ञानयोः । संयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्वे संज्ञयाहारे।।९।। अर्थ-मार्गणास्थान के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारत्व ये चौदह भेद हैं।।९।। १. यह गाथा पञ्चसंग्रह की है (द्वार १. गा. २१)। गोम्मटसार-जीवकाण्ड में यह इस प्रकार है 'गइइंदियेसु काये, जोगे वेदे कसायणाणे य। संजमदंसणलेस्साभवियासम्मत्तसण्णिआहारे।।१४१।।' २. गोम्मटसार जीवकाण्ड के मार्गणाधिकार में मार्गणाओं के जो लक्षण हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं(१) गतिनामकर्म के उदय-जन्य पर्याय या चार गति पाने के कारणभूत जो पर्याय, वे 'गति' कहलाते हैं। -गा. १४५। (२) अहमिन्द्र देव के समान आपस में स्वतन्त्र होने से नेत्र आदि को 'इन्द्रिय' कहते हैं। -गा. १६३। (३) जाति-नामकर्म के नियत-सहचारी, त्रस या स्थावर-नामकर्म के उदय से होनेवाले पर्याय 'काय' है। -गा. १८०।। (४) पुद्गल-विपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन, वचन और काय-युक्त जीव की कर्मग्रहण में कारणभूत जो शक्ति, वह 'योग' है। -गा. २१५। (५) वेद-मोहनीय के उदय-उदीरणा से होनेवाला परिणाम का संमोह (चाञ्चल्य), जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं रहता, वह 'वेद' है। -गा. २७१। (६) 'कषाय' जीव के उस परिणाम को कहते हैं, जिससे सुख-दुःखरूप अनेक प्रकार के वास को पैदा करनेवाले और संसार रूप विस्तृत सीमावाले कर्मरूप क्षेत्र का कर्षण किया जाता है। -गा. २८१। सम्यक्त्व, देशचारित्र, सर्वचारित्र और यथाख्यातचारित्र का घात (प्रतिबन्ध) करने वाला परिणाम 'कषाय' है। -गा. २८२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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