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________________ xxxii चौथा कर्मग्रन्थ कालीन व्यापार न तो शुभ-भावपूर्वक होता है और न शुभ-भाव का कारण ही होता है। इसलिये वह परम्परा से भी मोक्ष के अनुकूल न होने के सबब से योग नहीं कहलाता। पातञ्जलदर्शन में भी अनादि सांसारिक काल के निवृत्ताधिकार प्रकृति और अनिवृत्ताधिकार प्रकृति इस प्रकार दो भेद बतलायें हैं, जो जैनशास्त्र के चरम और अचरमपुद्गलपरावर्त के समानार्थक' हैं। योग के भेद और उनका आधार जैनशास्त्र में (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद योग के किये हैं। पातञ्जलदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) असम्प्रज्ञात, ऐसे दो भेद हैं। जो मोक्ष का साक्षातअव्यवहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुरन्त ही मोक्ष हो, उसे ही यथार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जैनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जलदर्शन के संकेतानुसार असम्प्रज्ञात ही है। अतएव प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते हैं, उनका आधार क्या है? इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृत्तिसंक्षय किंवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग है। तथापि वह योग किसी विकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किन्तु इसके पहले विकास-क्रम के अनुसार ऐसे अनेक आन्तरिक धर्म-व्यापार करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर विकास को बढ़ाने वाले और अन्त में उस वास्तविक योग तक पहुँचाने वाले होते हैं। वे सब धर्म-व्यापार योग के कारण होने से अर्थात् वृतिसंक्षय या असम्प्रज्ञात योग के साक्षात् किंवा परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं। सारांश यह है कि योग के भेदों का आधार विकास का क्रम है। यदि विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के भेद नहीं किये जाते। अतएव वृत्तिसंक्षय जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिये और उसके पहले के जो अनेक धर्म-व्यापार योग-कोटि में गिन जाते हैं, वे प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं। इन सब व्यापारों की समष्टि को पातञ्जलदर्शन में सम्प्रज्ञात कहा है और जैनशास्त्र में शुद्धि के तर-तम-भावानुसार उस समष्टि १. योजनाद्योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तमैः। स निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ लेशतो ध्रुवः।।१४।। (अपुनर्बन्धद्वात्रिंशिका) २. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः। योग: पञ्चविधः प्रोक्तो योगमार्गविशारदः।।१।। (योगभेदद्वात्रिंशिका) ३. देखिये, पाद १, सूत्र १७ और १८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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