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________________ प्रादि कोमल रसों में कोमल वर्णों का प्रयोग होना चाहिए तथा समस्त पदों का प्रयोग या तो न हो, यदि हो तो अल्प हो जिसमें समस्त पर लघु हों। इसी प्रकार वीर, रोद्र मादि कठोर रसों में कठोर वर्गों का प्रयोग करना चाहिए, तथा सघन और अधिक समासों का प्रयोग होना चाहिए। उक्त वर्णों एवं पदों का प्रयोग कोमल रसों में माधुर्य गुण का अभिव्यंजक कहाता है और कठोर रसों में मोज गुण का। इनके अतिरिक्त यदि किसी भी सरस रचना में प्रथं का प्रवबोध त्वरित हो जाएगा तो उसमें चाहे कैसे भी वर्णों और पदों का प्रयोग हो वहां माधुर्य अथवा मोज में से किसी एक गुण के साथ प्रसाद गुण की स्वीकृति भी की जाएगी। इस प्रकार ये गुण वर्ण भौर पद पर आधारित हैं, रचना अर्थात काव्य के बाह्य पक्ष पर माषारित है, पूर्वोक्त गुणों के समान सहृदय की चित्तवृत्ति अर्थात् काव्य के प्रान्तरिक पक्ष पर पापारित नहीं हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वोक्त गुणों के समान इन गुणों का रस के साथ नित्य सम्बन्ध भी नहीं है। उदाहरणार्थ, श्रृंगार रस के किसी पद्य में यदि कोई अपीढ कवि दीर्घ-समस्तवृत्ति मौर टवर्गादि से युक्त कठोर वर्णयोजना का प्रयोग कर लेगा, तो उस स्थिति में भी उस पद्य में रसगत माधुर्य गुण की ही स्वीकृति होगी और वर्णादिगत प्रोजगुण की । क्योंकि गुण की स्थिति रस पर मात है न कि वर्णयोजना पर । हाँ, इस पद्य में 'वर्ण-प्रतिकूलता' नामक दोष भी अवश्य माना जाएगा। किन्तु मादर्श स्थिति यही है कि श्रृंगार प्रादि रसों में माधुर्यगुण के अभिव्यञ्जक वणं प्रयुक्त किये जाने चाहिए और रौद्र मांदि रसों में प्रोज गुण के। रामचन्द्र-गुणचन्द्र को अपने उपयुक्त फवन में यही मादर्श स्थिति प्रभीष्ट है कि पीर-रौद्र प्रादि दीप्त रसों में रसगत मोज गुण तो स्वतःसिद्ध है ही, वहाँ धादिगत भी मोष ग्रण ही होना चाहिए। ६. वक्रोक्ति प्रस्तुत ग्रन्थ में 'वक्रोक्ति' शब्द का प्रयोग जिन प्रसंगों में हुमा है, उनमें निम्नोक्त चार प्रसंग उल्लेखनीय है-वीथी, शृंगार रस, भामुख, और रसदोष । इन्हीं प्रसंगों में वक्रोक्ति को न तो कुन्तक-सम्मत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, तथा न शब्दालंकार रूप प्रचलित अर्थ में । इन प्रसंगों में इसका प्रयोग एक-समान अर्थ में न होकर तीन भिन्न अर्थों में हुमा है : (१) वीथी'-प्रसंग में वक्रोक्ति से तात्पर्य है-विविधता विचित्रता, अथवा शबलता। ग्रन्थकारों ने वीथी के लक्षण में इसे नाटकादि द्वादश रूपकों की उपकारिणी कहा है और इसका कारण यह बताया है कि वीथी के व्याहार, अधिबल प्रादि १३ अंग नाटक भादि सभी रूपकों में उपयोगी है, और इन अंगों के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है, कि ये अनेक वक्रोक्तियों अर्थात् विविधताओं, विचित्रताओं अथवा शबलताओं से युक्त है सर्वेषां रूपकाणां नाटकावीनां वक्रोक्त्याविसंकुला। त्रयोदशाङ्गप्रवेशेन उपयोगिनी वैचित्र्यकारिका ॥ हि० मा० द० पृष्ठ २४१ इसी प्रसंग में ही शृंगार और हास्य को अनेक प्रकार की वक्रोक्तियों से युक्त कहा गया है । यहाँ भी 'वक्रोक्ति' का अर्थ विविधता ही है वक्रोक्तिसहलसंपुलत्वेन शृंगारहास्ययो सूचनामात्रत्वात् कैशिकी सिहोमस्वम्। -वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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