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________________ का० १४७, सू० २१५-१६ ] तृतीयों विवेकः । ३४७ अथ विबोधः[सूत्र २१५] -निद्राच्छेदो विबोधश्च शब्दादेरङ्गभङ्गवान् । आदिशब्दात् स्पर्श-स्वप्नान्त-आहारपरिणामादेविभावस्य ग्रहः। उपलक्षणात् जृम्भा-अक्षिविमर्दन-शयनमोक्षण-भुजाक्षेप-अंगुलित्रोटनादिरनभावो द्रष्टव्यः । पर्यन्ते चकारः सर्वव्यभिचारिसमुच्चयार्थः इति । अथैषां रसादीनां मध्ये केषांचित् परस्परं कार्यकारणतांमाह[सूत्र २१६] -केषाञ्चित् तु रसादीनामन्योन्यं हेतुकार्यता ।। [४४] १४६ ॥ आदिशब्दाद् व्यभिचारिणाम् । यथा वीरादद्भुतः । महापुरुषोत्साहो हि जगद्विस्मयं फलं साक्षादनुसन्धत्ते। तथा द्रौपदीस्वयम्वरादौ वीराच्छृङ्गारोऽपि। रौद्राच वध-बन्धादिफलानन्तरं करुण-भयानको। तथा सर्वरसेभ्योऽनन्तरं सर्वे सजातीया रसा भवन्ति । यथा शृङ्गारिणं दृष्ट वा शृङ्गारः, हसन्तं दृष्ट्वा हास्यः । इत्येवं सर्वरसेषु हेतु-फलभावो वाच्यः। सर्वरसानां चाभासा अनौचित्यप्रवृत्तत्वात् हास्यरसस्य कार (३३) अब विबोध [का लक्षण करते हैं [सूत्र २१५]-शब्द आदिके कारण होने वाला निद्राभङ्ग विबोध' कहलाता है और उसमें अंगड़ाई आदि [मनभाव होते हैं। . प्रादि शम्बसे छूने, स्वप्नकी समाप्ति, भोजनका परिपाक हो चुकने प्रावि [विभागों] कारणोंका ग्रहण होता है। [अंगभंगवान् पदके उपलक्षण रूप होनेसे जम्भाई, माल मलना फिर सो जाने, खाट परसे उठ बैठने. हाथ फैलाने, अंगुलियां चटकाने आदि अनुभावोंको समझना चाहिए। [विबोधके वर्णनके साथ व्यभिचारिभावोंका वर्णन समाप्त होता है। इसलिए 'विबोधश्च' इस पदमें पाया हुमा] अंतमें प्रयुक्त चकार व्यभिचारित्वके समुख्यकेलिए है। [अर्थात् यहां तक सारे व्यभिचारिभावोंका वर्णन समाप्त हो गया इस बातका सूचक है] । ___अब इन रसाविमेंसे किन्हींके परस्पर एक-दूसरेके प्रति कार्य-कारणभावका कथन करते हैं [सूत्र,२१६]--रसादिकोंमेंसे किन्हींका परस्पर एक-दूसरेके प्रति कार्य-कारणभाव होता है । [४४] १४६॥ आदि शब्दसे व्यभिचारियोंका ग्रहण होता है। [रसोंके परस्पर कार्य-कारणभावका उदाहरण देते हैं] जैसे वीररससे अद्भुत रस [उत्पन्न होता है] । महापुरुषोंका उत्साह [जो वीररसका स्थायिभाव होता है] साक्षात् रूपसे जगत्के विस्मय रूप फलको [अर्थात् अद्भुत रसके स्थायिभावको] उत्पन्न करता है। और द्रौपदी स्वयम्वरादिमें [अर्जुनके पराक्रमको देखकर द्रौपदीके मनमें] वीररससे शृङ्गाररसकी भी उत्पत्ति होती है। और रौद्ररससे उसके वष या अन्ष रूप फलोंको देखकर करुण तथा भयानक रसोंकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार सब रसोंसे उनके गव होनेवाले सजातीय रस उत्पन्न होते हैं। जैसे शृङ्गारयुक्तको देखकर [दूसरेमें] भृङ्गार, हंसते हुएको देखकर [दूसरेमें] हास्य [उत्पन्न होता है । इस प्रकार सारे रसोंमें कार्य-कारणभाव समझना चाहिए। [ अनौचित्यसे प्रवृत्त होनेवाले रस, रसाभास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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