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________________ द्वितीयो विवेकः [ २४७ यथा कृत्यारावणे प्रथमेऽङ्क सीतावेषधारिण्या 'शूर्पणखया सह संवादे [नेपथ्ये] — का० ६६, सू० १४३ ] " हा भ्रातर्लक्ष्मण ! परित्रायस्व मां परित्रायस्व । [इति श्रुत्वा 'शूर्पणखा मोहमुपगता । तस्यां च मूढायां] लक्ष्मणः -- आर्ये ! समाश्वसिहि समाश्वसिहि । शूर्पणखा - [ अक्षिणी उन्मील्य सक्रोधं ] श्रः अरणन्ज ! अज्ज वि तुमं चिट्ठसि य्येव । अहो ! दाणि सि तुमं निस्संसो निग्विणो य चिट्ठदु दाव भादुयसिणेहो, कध रणाम इक्खाजकुलसंभवेण महाखत्तिएण भविय एवं तए ववसियं ? गं भणामि एवभक्कंदतो सस् विन उवेक्खीयदि किं पुरण प्रज्जउत्तो ? [ : अनार्य ! अद्यापि त्वं तिष्ठस्येव । श्रहो इदानीमसि त्वं नृशंसो निघृणश्च · तिष्ठतु तावद् भ्रातृस्नेहः, कथं नाम इक्ष्वाकुकुलसम्भवेन महाक्षत्रियेण भूत्वैवं त्वया व्यवसितम् ? ननु भणामि एवमाक्रन्दन् शत्रुरपि नोपेक्ष्यते किं पुनरार्यपुत्रः । इति संस्कृतम् ] | लक्ष्मणः–आर्ये ! ननु त्वदर्थ एव आर्येण स्थापितोऽस्मि । शूर्पणखा - कुमार ! एवं मम अत्थो कदो होदि । एवं च अहं परिरक्खिदा होमि । ता सव्वधा अन्न य्येव दे आणि अभिप्पायं लक्खेमि । इत्यादि । [कुमार ! एवं ममार्थः कृतो भवति ! एवं चाहं परिरक्षिता भवामि ? तत्सर्वथान्यमेव तेऽनिष्टमभिप्रायं लक्षयामि । इति संस्कृतम् ] ।” 'यथा वा रघुक्लिासे जैसे कृत्यारावरण में प्रथम प्रमें सीताका वेष धारण किए हुए शूर्पणखाके साथ संवादमें [अर्थात् संवावके अवसरपर ] नेपथ्यमें " हे भाई लक्ष्मण ! मुझे बचाम्रो, बचाओ । [ऐसा सुनकर शूर्पणखा मूच्छित हो जाती है ] मौर उसके मूच्छित हो आनेपर लक्ष्मरण [कहते हैं]- श्रायें ! धैर्य धारण करो । शूर्पणखा - [खें खोलकर क्रोधपूर्वक कहती है] अरे दुष्ट अनार्य ! तुम अभी लड़े हुए ही हो । अरे ! तब तो तुम बड़े क्रूर और निर्लज्ज [ प्रतीत होते] हो । भाईके स्नेहकी बात जाने भी दो, तो भी इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न महान् क्षत्रिय होकर तुमने यह कैसे किया ? [अब तक तुम गए क्यों नहीं ?] मैं कहती हूँ कि इस प्रकार पुकारनेपर शत्रुकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है [शत्रुकी रक्षाके लिए भी तुरन्त जाना चाहिए था ] फिर प्रार्यपुत्रकी तो बात ही क्या है ? लक्ष्मरण - श्रायें ! आपकी ही रक्षाकेलिए मुझे प्रायं [ रामचन्द्र ]ने नियुक्त किया है । शूर्पणखा - कुमार ! क्या इस प्रकार मेरा काम होगा। और क्या इस प्रकार मेरी रक्षा होगी। इसलिए मैं तुम्हारा कुछ और ही अनिष्ट अभिप्राय देखती हूँ। [जिसके कारण तुम अभी तक नहीं गए ] ।" अथवा जैसे रघुविलास में - १. सूपं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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