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________________ --------- - --- - - का० ४३, सू० ५४ ] प्रथमो विवेकः [ ११३ इति द्रौपद्याभिहितो भीमः प्रत्याह-- "अयि किमद्यायलीकाश्वासनाभिः ? भूयः परिभवक्षान्तिलज्जाविधुरिताननम् । अनिःशेषितकौरव्यं न पश्यसि वृकोदरम् ॥" इति कुरुनिधनारम्भरूपस्य बीजार्थस्यायमुभेदः । इति । अन्ये तु गृढभेदनमुभेदनमामनन्ति । यथा रत्नावल्यां वत्सराजस्य कुसुमायुव-व्यपदेश-निगूढस्य 'अस्तापास्त' इत्यादिना वैतालिकवचसा सागरिका प्रत्युभेदः। यथा वा राघवाभ्युदये___ "सीता-[समन्तादवलोक्य रामं च सविशेष निर्वर्ण्य स्वगतम् ] कथमयमनङ्गोऽप्यङ्गमास्थाय चापारोपणं द्रष्टुमायातः । प्रसीद भगक्ननङ्ग ! प्रसीद । तथा कुयों यथा राम एव चापारोपणाय प्रभवति । लवङ्गिका-[अंगुल्या रामं दर्शयन्ती] जं भट्टिदारिया इत्तियं कालं मरणोरहगोबरं कयवदी तं संपयं दिहिगोयरं करेदु । [यं भदारिका इयन्तं कालं मनोरथगोचरं कृतवती, तं साम्प्रतं दृष्टिगोचरं करोतु । इति संस्कृतम्] । द्रौपदीके इस प्रकार कहनेपर भीमने उत्तर दिया कि"अरे अब भी और मिथ्या पाश्वासन देनेसे क्या लाभ [मैं तो यही कहता हूँ कि]-- तिरस्कार सहन करनेको लज्जाके कारण मलिनमुख भीमको तुम अब कौरवोंका नाश किए बिना दुबारा नहीं देखोगी [अर्थात् अब मैं कौरवोंका समूल विनाश करनेके बाद ही दुबारा तुम्हारे पास पाऊँगा । उससे पहले नहीं] " इसमें कौरवोंके विनाशके प्रारम्भ रुप बीजका 'उभेद' [स्वल्पप्ररोह] है । इस प्रकार ग्रन्थकारने मुखसन्धिके 'उद्भेद' नामक पञ्चम अङ्गका लक्षण प्रस्तुत किया। किन्तु अन्य व्याख्याकार 'उभेद'का लक्षण अन्य प्रकारसे करते हैं। उनके मतमें किसी गूढ अर्थका प्रकट होना 'उभेद' कहलाता है । इस मतको ग्रन्थकार भागे दिखलाते हैं । दूसरे [प्राचार्य] तो [किसी] गूढ [रहस्य के प्रकट होनेको 'उद्भेदन' कहते हैं। जैसे रत्नावलीमें [अनङ्ग पूजनके अवसरपर] कुसुमायुधके नामसे छिपे हुए वत्सराज [उदयन] का 'प्रस्तापास्त' इत्यादि [इलोक] से वैतालिकाके वचनसे सागरिकाके प्रति [उदयनके रूपमें वत्सराजका] प्रकट होना। [उभेद कहा जा सकता है । अथवा जैसे राघवाम्युक्यमें "सीता--[चारों प्रोर देखकर और रामचन्द्रकी ओर विशेष रूपसे देखती हुई अपने मनमें स्वगत कहती है] अच्छा यह [अनङ्ग] कामदेव भी शरीर धारण करके धनुषके प्रारोपणको देखने के लिए पा गया है । कृपा करो, भगवन् मनङ्ग ! कृपा करो, जिससे रामचन्द्र ही धनुषके चढ़ानेमें समर्थ हो सके [अन्य कोई समर्थ न हो सके । 'लवङ्गिका---[अगुलीसे रामको दिखलाती हुई] हे स्वामिपुत्रि ! जिनको पाप प्रम तक मनोरथका विषय बनाए हुए थीं उनको अब दृष्टिका विषय बना लो [अर्थात् बेख लो] । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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