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________________ १०४ ] नाट्यदर्पणम् ! का० ४०, सू० ४८ आखेटो मुनिकन्यका कुलपतिः कीरः शृङ्गालोऽध्वगाः, विप्रो म्लेच्छ पतिर्मनुष्यमरणं लम्बस्तनी मान्त्रिकः । उद्वद्धः पुरुषो वियच्चरवधूर्गोमायुनादः फणी, सर्व सत्त्वपरीक्षणोत्सुकरसैरस्माभिरेतत् कृतम् ।। आखेट इत्यादिना मुखसन्धिनिबद्धाः, कीर इत्यादिना प्रतिमुखसन्धिभाविनः, अश्वगेत्यादिना गर्भसन्धिग्रथिताः, मनुष्येत्यादिना च विमर्शसन्धिसूत्रिताः, यथासंख्य प्रारम्भाद्यवस्थानुगताः फलवन्तोऽर्था निर्वहणसन्धावेकवाक्यताऽऽपादनार्थ संक्षेपतः पुनरुपात्ता इति ॥४॥ कुन्तल और कपिजलके साथ राजा हरिश्चन्द्र घोड़ेपर चढ़े हुए वराहका पाखेट करते हुए प्रविष्ट होते हैं, इसी मृगया-प्रसंगमें एक तपोवनके समीप में राजाके वारणसे एक गर्भिणी हरिणी की हत्या हो जाती है। यह हरिणी प्राश्रमके कुलपतिकी कन्याकी पालतू हरिणी थी। राजा को उस हरिणीके वधसे बड़ा दुःख होता है । वे अपने साथियों के साथ प्राश्रम में प्रवेश करते हैं। वहाँ कुलपति उनका स्वागत करते हैं। किन्तु इसी बीचमें कुलपतिको मालूम होता है कि उनकी कन्या अपनी प्रिय हरिणीके मारे जानेके कारण अनशन करके मरने के लिए तैयार हो रही है। और उसके साथ उसकी माता भी अनशन करने जा रही है। कन्याका नाम वंचना और उसकी माताका नाम निकृति है। कन्या और पत्नीके अनशन तथा हरिणी के वधका समाचार जानकर कुलपति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठते हैं, और राजाको बहुत खरीखोटी सुनाते हैं । अन्तमें वे कहते हैं कि यह राजा अपना सर्वस्व दान करनेपर ही इस पापसे मुक्त हो सकता है । और राजा उसी समय अपना सर्वस्व दान कर देते हैं । यह मुख-सन्धि का कथाभाग है। प्रागे की राजा हरिश्चन्द्रके अपने बेचने आदिको कथा अगले अङ्कोंमें चलती है, उस सारे कथाभाग का स्पर्श करनेवाले शब्दों द्वारा कथांशका निर्देश अगले श्लोक में 'पाखेटो मुनिकन्यका कुलपतिः' शब्दों से किया गया है। इसी प्रकार श्लोक में आए हुए कीरः शृगालो, अध्वगा मादि प्रत्येक शब्द नाटकके प्रगले प्रकोंमें वरिणत कथानक तथा विशिष्ट पात्रोंसे सम्बन्ध रखता है । इन शब्दोंके द्वारा सारे नाटकके कथाभागकी संक्षेपमें बड़ी सुन्दरताके साथ एक तरहसे पुनरावृत्ति कर दी गई है। इसलिए यह दूसरे लक्षण के अनुसार निर्वहण सन्धिका उदाहरण है । श्लोकका अर्थ निम्न प्रकार है (१) वह शिकार, मुनिकी पुत्री, फुलपात, (२) वह तोता और शृगाल, (३) वह पथिका, ब्राह्मण और म्लेच्छराज, (४) वह मनुष्यका मरण, लम्बस्तनी, मांत्रिक, उखत पुरुष, पक्षियोंका शम्द, शृगालोंकी आवाज, और सर्प यह सब प्रापको [हरिश्चन्द्रकी] शक्तिकी परीक्षाके लिए हमने ही किया था। . इसमें] पाखेट इत्यादिसे मुखसन्धिमें निबद्ध [अर्थ], कीर इत्यादिसे प्रतिमुख सन्धिमें निबद्ध [मयं], अध्वगा इत्यादिसे गर्भ सन्धिमें अथित [अर्थ] और मनुष्य इत्यादिसे विमर्श सन्धिमें वरिणत [अथ] क्रमशः प्रारम्भ प्रादि अवस्थामोंसे युक्त फलवान अर्थ एकवाक्यता सम्पादनके लिए निर्वहण सन्धिमें संक्षेपसे फिर कहे गए हैं। [इसलिए निर्वहण सन्धिके दूसरे लक्षणके अनुसार राज उसका उदाहरण है] ॥४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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