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________________ का० २६, सू. २६ ] प्रथमो विवेकः [ ६६ सम्बन्ध भी रहता है और प्रकरौके साथ स्वार्थसिद्धिका कोई प्रश्न नहीं रहता है। इनका दूसरा भेद दोनोंके चरित्रकी व्यापकताकी दृष्टिसे है । 'प्रकरी' का चरित्र बिलकुल एकदेशी और सीमित होता है। पताका-नायकका चरित्र उसकी अपेक्षा पर्याप्त बड़ा और अधिक देश-व्यापी होता है। पताकाका लक्षण करते हुए जो 'मा-विमर्शात्' पद दिया गया है उससे पताका-नायकके चरित्रकी व्यापकता ही प्रदर्शित की गई है। नाटकके कथाभागको पांच भागोंमें बांटकर उसमें पांच प्रकारको सन्धियोंका प्रयोग करनेका विधान किया गया है। इन सन्धियों के नाम.-१. मुख-सन्धि, २. प्रतिमुख-सन्धि, ३. गर्भ-सन्धि, ४. विमर्श सन्धि और ५. निर्वहण-सन्धि रखे गए हैं। इनमें पताका-नायकका चरित्र मुख-सन्धिसे प्रारम्भ होकर 'मा-विमर्शात्' विमर्श सन्धितक व्याप्त हो सकता है । 'मा-विमर्शात्' पदमें पाए हुए प्राङ-उपसर्गके भी दो अर्थ हैं । एक 'मर्यादा' और दूसरा 'मभिविधि' । 'तेन विना मर्यादा' और 'तत्सहितो अभिविधिः। मा-विमर्शात् पदमें यदि प्राङ-उपसर्गको मर्यादार्थक मानें तो 'तेन विना' अर्थात् विमर्श सन्धिको छोड़कर अर्थात् गर्भ-सन्धि पर्यन्त पताका-नायक के चरित्रका क्षेत्र रहता है । और यदि माङ उपसर्गको 'अभिविधि' अर्थमें मानते हैं तो 'तेन सह अभिविधिः' इस लक्षण के अनुसार 'प्राविमर्शात' पदसे विमर्श-सन्धिको भी सम्मिलित करके मुख, प्रतिमुख, गर्भ और विमर्श इन चारों सन्धियों में पताका-नायकका चरित्र व्यापक हो सकता है । परन्तु 'प्रकरी' का चरित्र बिलकुल एकदेशी होती है । पताका अनिवार्य नहीं . पताका और प्रकरी दोनों के विषयमें एक बात यह और ध्यान रखने की है कि इस दोनों में से किसीकी भी स्थिति नाटकमें अनिवार्य नहीं है। इन दोनोंके बिना भी नाटककी रचना हो सकती है। इनकी प्रावश्यकता उसी दशामें है जब मुख्य नायकको सहायकको मावश्यकता होती है। जिस नायकको इस प्रकारके सहायककी आवश्यकता नहीं होती उसके चरित्र को लेकर लिखे गए नाटक की रचना इनके बिना भी की जा सकती है। पताका और पताका स्थान ___ इस सम्बन्ध में एक बात मोर ध्यानमें रख लेनी चाहिए कि यह पताका शब्द कभीकभी भ्रम उत्पन्न कर देता है। यह जो यहाँ पताकाका लक्षण किया जा रहा है वह प्रधाननायकके सहायक पताका-नायकका लक्षण किया जा रहा है । इसके अतिरिक्त चार प्रकारके पताका-स्थानोंका वर्णन भी मागे मायेगा। वे 'पताका-स्थान' इस पताकासे बिलकुल भिन्न वस्तु है। जहां केवल 'पताका' शब्दका प्रयोग किया जाता है वहां उससे 'पताकानायक'का ही ग्रहण होता है। पताका-स्थानोंकी चर्चा जहाँ अभिप्रेत होती है वहाँ केवल पताका शब्दका प्रयोग न करके 'पताका-स्थान' शब्दका ही प्रयोग किया जाता है। इन दोनों के नामों में प्रत्यधिक साम्य होने के कारण ही ग्रन्थकारने पताका-लक्षणके बाद ही पताकास्थानोंका' भी वर्णन कर दिया है। वैसे साधारणतः इस स्थल पर उनके वर्णनका कोई प्रसङ्ग नहीं था। इस विवरणको समझ लेने पर प्रागे कहे हुए पताका-लक्षण के समझने में सरलता होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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