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________________ दर्पणम् ५६ ] अथ अङ्कास्य-चूलिके लक्षयति[ सूत्र २२ ] -- अङ्कास्यमन्तपात्रेण वस्तुनः सूचनं चूला छिन्नाङ्कमुखयोजनम् । पात्रैर्नेपथ्य संस्थितैः ॥ २६॥ अन्तपात्रेणेति पूर्वस्याङ्कस्यान्ते स्त्री-पुरं सान्यतरेण पात्रेण । छिन्नस्य असम्बद्धस्य उत्तराङ्कमुखस्य योजनमुपक्षेपो यस्तत् 'अङ्कास्यम्' अंकमुखम् । यथा वीरचरिते द्वितीयाङ्कान्ते “ प्रविश्य सुमन्त्रः - भगवन्तौ वसिष्ठ- विश्वामित्रौ भवतः सभार्गवान चाहयेते इति । इतरे तु क्व भगवन्तौ ? सुमन्त्र: - महाराजदशरथस्यान्तिके । इतरे - तदनुरोधात् तत्रैव गच्छामः । इत्यङ्कममाप्तौ - ततः प्रविशन्ति [ का० २६, सू० २२ वसिष्ठविश्वामित्र-शतानन्द जनक परशुरामाः ।" . इत्यत्र पूर्वाङ्कान्ते एव प्रविष्टेन सुमन्त्रपात्रेण शतानन्द जनक कथार्थविच्छेदे उत्तराङ्कमुखसूचनात् श्रङ्कास्यमिति । frostre मोर प्रवेशकका प्रयोग एकांकी व्यायोगादि और परस्परासम्बद्ध प्रङ्कों वाले सम कार तथा प्रल्पवृत्त वाले अन्य रूपकभेदों में नहीं किया जाता है । अब मागे 'अङ्कास्प' तथा 'चूलिका' दोनोंका लक्षरण [एक ही कारिकामें] करते हैं[सूत्र २२] - [प्रङ्कके प्रन्तमें ही प्रविष्ट होने वाले] अन्तिम पात्र के द्वारा [पूर्व असे असम्बद्ध] विच्छिन्न [ अगले उत्तरवर्ती] प्रङ्कके प्रारम्भका सम्बन्ध जोड़नेसे 'प्रङ्कास्थ' नामक प्रथपक्षेपक होता है] और नेपथ्य स्थित पात्रोंके द्वारा वस्तुको सूचना 'चूलिका' [कहलाती ] है । २६ । अन्तिम पात्र के द्वारा अर्थात् पूर्व के अन्तमें [ प्रविष्ट होने वाले ] स्त्री या पुरुष किसी भी पात्र के द्वारा छिन्न अर्थात् [ पूर्व प्रङ्कके साथ ] प्रसम्बद्ध अगले अङ्कके प्रारम्भ [ख] की जो योजना अर्थात् उपक्षेप [बीजारोपण ] करना वह 'श्रङ्कास्य' अर्थात् 'अङ्कमुख' [कहलाता ] है । जैसे महावीर चरितके द्वितीय अङ्क के अन्तमें "प्रविष्ट होकर सुमन्त्र [ कहते हैं कि ] - महर्षि वसिष्ठ तथा विश्वामित्र, भार्गव Jain Education International [परशुराम ] सहित प्राप दोनों [शतानन्द और जनक] को बुला रहे हैं । अन्य दोनों - [जनक और शतानन्व] वे दोनो कहाँ हैं [ यह पूछते हैं] ? सुमन्त्र -[उत्तर देते हैं ] - महाराज दशरथके समीप हैं । > अन्य दोनों - उनकी इच्छा के अनुसार हम सब वहीं जाते हैं । यह [ द्वितीय] समाप्ति में [प्राया है] । उसके बाद [ अगले प्र afers feastfee शतानन्द जनक और परशुराम प्रविष्ट होते हैं ।" इस उदाहरण में पूर्ववर्ती द्वितीय प्रङ्कके अन्तमें ही प्रविष्ट होने वा Tare और जनकके वार्तालाप रूप अर्थको विच्छिन्न करके [गले तृतीय में वसिष्ठ प्राविके साथ होने वाले जनक शतानन्दके वार्तालाप रूप] प्रकेारकी सूचना [लिए यह प्रङ्कास्यका उदाहरण है] । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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