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________________ ४२० ] सेतुबन्धम् [ दशम मुकुलितेषूत्पलेषु दुःखेन प्रभवन्तो मान्तो मधुकरा यत्र । रात्रौ तेषां मुद्रणादलि. तुल्यप्रमाणोदरत्वाच्चेति भावः । विलासिनीनां हृदयानि प्रदोषाम्राज्यान्मन्मथे परवशान्यस्वतन्त्राणि सन्ति रविव्यापारं सुरतोत्सवं अभिलषन्ति, रामागमनेन परिवर्धित आवेगः कष्टं यत्र तथाभूतानि सन्ति मुञ्चन्ति च । निजनिज स्वामिविधुरशङ्कित्वादिति हर्षत्रासभावयोः संधिः ॥ ५६-५७।। जागते हुये, नदी के दोनों तटों पर खिन्न वियुक्त हो गये एवं मुकुलित कमल के रहे थे उस समय विलासिनियों के हृदय, मदन से त्सव का अभिलाष कर रहे थे तो दूसरी ओर राम के आगमन से ( अपने-अपने उद्विग्नता बढ़ जाने से उसका परित्याग विमला - इस प्रकार जब सन्ध्याकाल बीत गया और मदन के कारण चक्रवाक -युगल एक-दूसरे से मधुकर कठिनाई से अमा परवश हो एक ओर सुरतो. स्वामियों के वियोग की शङ्का कर ) कर रहे थे ।। ५६-५७।। तदेवोपपादयति होते हुये भीतर बन्द लद्वगलन्तासाअं प्रावेअविहिष्ण बम्महुल्ल लिअसुहम् । छिष्णघटिज्जन्तरसं नावज्जइ दइअचुम्बणं जुवईणम् ॥ ५८ ॥ [ लब्धगलदास्वादमावेगविभिन्नमन्मथोल्ललितसुखम् छिन्नघटय मानरसं नाबध्यते दयितचुम्बनं युवतीनाम् ॥ ] 1 युवतीनां स्वविषये दयितकर्तृकं दयितविषये स्वकर्तृकं वा चुम्बनं नाबध्यते चिरं न तिष्ठति । विषादोदयाद्धृदये न लगतीति केचित् । वस्तुतस्तु — गाढं न संबध्यते । विरोधिरसोपस्थित्याधरोष्ठशैथिल्यादित्यर्थः । कीदृशम् । प्रथमं कामवशाल्लब्धस्तदैवावेगवशाद्गलन्नपगच्छन्नास्वादः सौहित्यं यत्र । एवं आवेगेनोद्वेगेन विभिन्नं संबद्धं खण्डितं वा मन्मथेनोल्ललितमुत्तरलीकृतं सुखं यत्र । यद्वा आवेगेन विभिन्न: संबद्धः खण्डितो वा मन्मथस्तेनोल्ल लितमुत्तरलीकृतं सुखं यत्र । एवं छिन्नः सन्घट्यमान: स्थाप्यमानो रसः शृङ्गारादिको यत्र । हर्षविषादयोस्तुल्यत्वादिति भावः ॥ ५८ ॥ विमला - युवतियों का चुम्बन चिरस्थायी नहीं हुआ, क्योंकि ज्यों ही कामवश आस्वादलब्ध हुआ त्यों ही उद्वेगवश वह नष्ट हो गया, आवेश के कारण मन्मथ खण्डित हो गया और सुख जाता रहा और इस प्रकार शृङ्गारादि रस छिन होता रहा और स्थापित होता रहा ||५८ | पुनस्तदेवाह - das ससइ किलिम्मइ सअणे प्रामुखइ णीसहो अङ्गाई 1 ण विणज्जइ कि भीओ ओ मअणपरव्वसो विलासिणिसत्थो ॥५६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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