SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ विमर्श - वानरों के हृदय देने और यश पीने की बात इसलिये कही गयी है क्योंकि वानर का यह स्वभाव है कि वह भूमि पर हृदय दे कर जल पीता है ॥४७॥ इतिकर्तव्यमाह ता सव्वे चित्र समअं दुत्तारं पि हणुमन्तसुहवोलीणम् । अब्भत्थेम्ह सुरासुरणिव्वू ढब्भत्थणारं मअरहरम् ||४८ ॥ [तावत्सर्व एव समं दुस्तारमपि हनूमत्सुखव्यतिक्रान्तम् । अभ्यर्थयामः सुरासुरनियूँ ढाभ्यर्थनादरं मकरगृहम् ॥] सर्व एव वयं सममेकदैव तावन्मकरगृहं समुद्रमभ्यर्थयामः । पारगमनोपायमर्थात् । नन्वलङ्घनीय एवायमिति कथमिदमित्यत आह-दुस्तारमपि हनूमता सुखेन व्यतिक्रान्तं लङ्घितम् । तथा चास्मज्जातिलङ्घयः स्यादेवेति भावः । नन्वस्माभिर्महद्भिः समुद्रस्याभ्यर्थना कर्तव्येत्ययुक्तमत आह- पुनः कीदृशम् । सुरासुराभ्यां निर्व्यूढो निष्पादितस्तत्तत्कार्यनिमित्तमभ्यर्थनारूप आदरो यस्य तम् । तथा चास्मदपेक्षयापि महत्तरैः कृत मिदमिति भावः । यद्वास्माभिरभ्यथितोऽपि कथं कुर्यादित्यत आह— सुरासुरयोनिव्यूँ ढो निष्पादितोऽभ्यर्थनाया आदरो येन तत् । तत्कार्यनिष्पादनात् । इदमपि तथैवेति भावः || ४८ || विमला - तो ( पार जाने के लिये ) सर्वप्रथम हम सब एक साथ समुद्र अभ्यर्थना करें। ( हमारा ऐसा करना अनुचित न होगा, क्योंकि हम सबसे बहुत बड़े ) सुरों और असुरों ने ( अपने कार्य के लिये ) इसका अभ्यर्थना के द्वारा आदर किया है और इसने भी उनका कार्य पूरा कर उनकी अभ्यर्थना का आदर किया है । ( हम सबके द्वारा लाँघे जाने को इसे अनुचित भी नहीं समझना चाहिये, जबकि ) हनुमान् ( जो हमारे ही परिवार का है ) इस दुस्तर समुद्र को ( एक बार ) लाँघ चुका है ॥ ४८ ॥ एतद्वैपरीत्ये वैपरीत्यमेव स्यादित्याह - ग्रह णिक्कारणगहिअं मए वि अम्भस्थिओ ण मोच्छिहि धीरम् । ता पेच्छह बोलीणं विहुओ नहिजन्तणं थलेग कइबलम् ॥ ४६ ॥ [ अथ निष्कारणगृहीतं मयाप्यभ्यथितो न मोक्ष्यति धैर्यम् । तत्पश्यत व्यतिक्रान्तं विधुतोदधियन्त्रणं स्थलेन कपिबलम् ||] अथ पक्षान्तरे । मयाप्यभ्यथितः समुद्रो निष्कारणं गृहीतं धैर्यं पारगमनव्यलोकरूपं न मोक्ष्यति ततः स्थलेन व्यतिक्रान्तं समुद्रमुत्तीर्णं कपिबलं पश्यत । कीदृशम् । विधुतमुदधिरूपं यन्त्रणं प्रतिरोधकं यस्य तत् । तथा च सत्यस्माभिरेव समुद्रः शोषणीयः क्षेपणीयो वेति भावः ॥ ४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy