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________________ चतुर्थ अधिकार पुत्र है जिसको आज यह दशा ! जो कर्मोका मारा हुआ मुझसे भी याचना कर रहा है । इस दुष्ट देवको धिक्कार है जो समय मात्रमें उलटेका सीधा और सीधेका उलटा कर देता है । अथवा यों कह दो कि पापके उदयसे धनी दरिद्री हो जाते हैं और पुण्यके उदयसे निर्धन धनी हो जाते हैं। __यही विचार कर जो निर्धन हैं उन्हें तो धन लाभके लिये पुण्य उपार्जन करना चाहिए और जो घनिक है उन्हें विभव वृद्धिके लिये सब पाप कर्म छोड़ने चाहिये । सुकृतपुण्यने उसकी दीन दशा देखकर उसी वक्त कितने ही धनके भरे हूये सुवर्णके कलश उसे दिये। परन्तु अकृतपुण्यका पाप कर्म इतना प्रचण्ड था जो हाथमें धरते ही वे अंगारकी तरह जलाने लगे। उन्हें देखकर अकृतपुण्य बोला___ क्यों भाई ! सबके लिये तो तू चने दे रहा है और मेरे लिये ये अङ्गार ! ऐसा क्यों ? तब सुकृतपुण्यने समझ लिया कि अभी इसके दारुण पापका उदय है। क्या किया जाय ? भाई ! मेरे अंगार तू मुझे दे दे और जितने चने तू ले जा सकता है उतने गठरी बांधकर खेतसे ले जा । उसके कहनेके अनुसार अकृतपुण्य जितने चने अपनेसे उठ सके उतने सिरपर धरकर घर चला गया । ___चने देखकर उसकी माताने कहा ये चने तू कहांसे लाया है ? उत्तर में अकृतपुण्यने कहा माता ! मैं सुकृतपुण्यके खेत पर गया था वहीसे चने लाया हूँ । सुनकर माता बहुत ही दु:खीनी हुयी और कहने लगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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