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________________ द्वितीय अधिकार [२५ न्तर पुण्यकी सम्प्राप्ति करनेवाला हैं और पापाश्रवका निरो'धक है ॥९३-९४।। अष्टमो तथा चतुर्दशोके दिन अथवा और व्रतादिमें नियमपूर्वक उपवास करनेको दूसरा कायक्लेश तप कहते हैं ॥९॥ बुद्धिमान पुरुष बारह प्रकार व्रतोके द्वारा जो तप आचरण करते है वह संपूर्ण तप, कर्मके भस्म करनेके लिये अग्निके समान है ॥९६।। इसके द्वारा गृहस्थोंके गृह संबंधी आरंभसे होनेवाला पाप नाश होता है तथा गुणोंके साथ ही साथ धर्म रूप कल्पवृक्ष वृद्धिगत होता है ॥९७॥ इस प्रकार समझकर पर्वतिथिमें बुद्धिमानोंको उपवासादि "पूर्वक निर्मल तप आचरण करना चाहिये और फिर उसे प्राणोंके नाश होनेपर भी नहीं छोड़ना चाहिये ॥९८।। प्रतिदिन दान देनेके लिये अपने गृह द्वार पर खड़े होकर निरीक्षण करना और उत्तम पात्र मिलनेपर उन्हें दान देना चाहिये । क्योंकि दान सुख का आकर है, अपना तथा दूसरेका हित करनेवाला है, धर्म तथा सुखका देनेवाला है, गृहारंभसे होने वाले पापका नाश करनेवाला है और भोग भूमिको विभू‘तिका प्राप्त करानेवाला है ॥९९-१००॥ __इन छह कर्मों के द्वारा गृहस्थोंको निरन्तर उत्तम धर्मकी "प्राप्ति होती रहती है तथा गृहारंभसे होनेवाले पाप कर्मका नाश होता है ॥१०१॥ हे कुमार ! इस प्रकार समझकर तुम्हें स्वर्ग सुखके देनेवाले पावन, गृहस्थोंके छह कर्म नित्य करने चाहिये । क्योंकि इन्हीं के द्वारा परंपरा मोक्ष सुख भी मिल सकेगा और देवां ! पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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