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________________ ८१४ [समराइन्धकहा 'हा किमेयं ति उवसंताओ चच्चरीओ, मिलिया नायरया। पयंपिओ सारही-देव, न खलु वाही नाम कोइ दुटपुरिसो निग्गहारिहो नरवईण, अवि य जीवाणमेव सकम्मपरिणामणिओ संकिलेसविसेसो। ता अप्पहू एयस्स राइणो, साहारणो खु एसो सव्वजीवाण। कुमारेण भणियं-भो नायरया, किमेवमेवं । नायरएहि भणियं-देव, एवमेयं । कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, एएण गहिओ वि एसो चइऊण नियबलं अमणोरमाए एयमवत्थाए कोस एवं चिट्ठइ । सारहिणा भणियंदेव, ईइसो चेव एसो वाही; जेण एएण गहियस्स पणस्सइ बलं, असोहणा अवत्था, दुक्खफलं चेट्टियं ति । कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, कस्स उण एसो न पहवइ। सारहिणा भणियं-देव, परमत्येण धम्मपच्छसेविणो अहम्मापच्छविरयस्स कस्सइ महाभागस्स। कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, जइ एवं, ता को उण इह उवाओ । सारहिणा भणियं-देव, खेत्तं वाहिणो पाणिणो, परमत्थेण नत्थि उवाओ मोत्तूणं धम्मतिगिच्छं। कुमारेण भणियं-भो नायरया, किमेवमेयं । नायरएहि भणियंदेव, एवमेयं । कुमारेण भणियं- भो जइ एवं, ता सव्वसाहारणे एयम्मि असोहणे पयईए अवयारए सज्जः' इति भणन उत्थितो रथवरात्, प्रवृत्तस्तस्य सम्मुखम् । 'हा किमेतद्' इति उपशान्ताश्चर्यः, मिलिता नागरकाः। प्रजल्पितः सारथिः- देव ! न खलु व्याधिर्नाम कोऽपि दुष्टपुरुषो निग्रहा) नरपतीनाम्, अपि च जीवानामेव स्वकर्मपरिणामजनितः संक्लेशविशेषः । ततोऽप्रभव एतस्य राजानः, साधारणः खल्वेष सर्वजीवानाम् । कुमारेण भणितम् - भो नागरकाः! किमेवमेतत् । नागरकर्भणितम-देव! एवमेतत् । कूमारेण भणितम-आर्य सारथे ! एतेन गहीतोऽपि एष त्यक्त्वा निजबलमनोरमायामेतदवस्थायां कस्मादेवं तिष्ठति । सारथिना भणितम्-देव ! ईदृश एवैष व्याधिः, येनतेन गृहीतस्य प्रणश्यति बलम, अशोभनाऽवस्था, दुःखफलं चेष्टितमिति । कुमारेण भणितम-आर्य सारथे ! कस्य पूनरेष न प्रभवति। सारथिना भणितम- देव! परमार्थेन धर्मपथ्यसेविनोऽधर्मापथ्यविरतस्य कस्यचिद् महाभागस्य । कुमारेण भणितम् - सारथे ! यद्येवं ततः कः पुनरिहोपायः । सारथिना भणितम् -देव ! क्षेत्रं व्याधेः प्राणिनः, परमार्थेन नास्त्युपायो मुक्त्वा छोड़ दे अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जा', ऐसा कहता हुआ उत्तम रथ से उठा, उक्त व्यक्ति के सामने चला 'हाय, यह क्या !' इस प्रकार नत्यमण्डलियाँ शान्त हो गयीं, नागरिक इकठे हो गये । सारथी ने कहा'महाराज ! रोग नाम का कोई दुष्ट पुरुष नहीं है, जिसको राजा वश में कर सकता हो, अपितु जीवों के ही अपने कर्मफल से उत्पन्न दुःख विशेष का नाम ही रोग है। अत: इस पर राजाओं की सामर्थ्य नहीं है, यह सभी प्राणियों के लिए सामान्य है।' कुमार ने कहा- 'हे नागरिको ! क्या यह ऐसा ही है ?' नागरिकों ने कहा'महाराज ! यह ऐसा ही है।' कुमार ने कहा-'आर्य सारथी ! इस व्याधि से गृहीत भी यह (व्यक्ति) अपनी शक्ति को छोड़कर कैसे इस असुन्दर अवस्था में ठहर रहा है ?' सारथी ने कहा-'महाराज ! यह रोग ऐसा ही है कि इसके जकड़ लेने पर शक्ति नष्ट हो जाती है, हालत बुरी हो जाती है और चेष्टाएँ दुःखफलवाली हो जाती हैं ।' कुमार ने कहा-'यह किस पर सामर्थ्य नहीं दिखलाता है अर्थात् यह रोग किसे नहीं होता है ?' सारथी ने कहा-'परमार्थ से धर्मरूपी पथ्य का सेवन करनेवाले और अधर्मरूपी अपथ्य से विरत किसी महाभाग्यशाली पर यह सामर्थ्य नहीं दिखलाता है ।' कुमार ने कहा-'आर्य सारथी ! यदि ऐसा है तो यहाँ कौन-सा उपाय है ?' सारथी ने कहा-'रोग के स्थान कर लेने पर प्राणी का वास्तव में धर्मचिकित्सा को छोड़कर (अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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