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________________ २६ [ समराइच्चकहा एहि निययपुरिसेहि । जहा -- महाराय ! अइविसमपरक्कम गव्वियं, विसमदोणी म्हप्पविट्ठ, अकयपरिरक्खणोवायं अप्पमत्तेण माणहंगनरवणा, इहरहा विसयविणासमवलोइ ऊग, वीरचरियमवलम्बिय, वीसत्यत्तेसु नरिंदपाइक्केसु, जाए अड्ढरत्तसमए, अत्थमिए रयणबहुपिययमे तेलोक्कमंगलपईवे मयंके सयलबलसहिएणमवक्खन्दं दाऊण अइपमत्तं ते विणिज्जियं सेन्नं । संपइ देवो पमाणं ति । तओ राइणा एवं सुदूसहं वयणमायण्णिऊण कोवाणलज लियरत्तलोयणेणं, विसमफुरियाहरेणं, निद्दयकराभिहयधरणिवट्ठेणं अमरिसवसपरिक्खलंतवयणेणं समाणत्तो परियणो । जहा - देह तुरियं पयाणपयडहं । सज्जेह दुज्जयं करिबलं, पल्लाणेह दप्पुदधुरं आससाहणं, संजत्तेह धयमालो वसोहियं संदणनिवहं, पयट्टावेह नाणापहरणसालिणं पाइक्कसेन्नं ति । तओ नरवइसमाएसाणन्तरमेवायण्णिऊण पयाणयपडहसद्द, करिवरविरायंत मेहजालं, ऊसियधयचमरछत्तसंघायबलायपरिययं, निसियकर वालकोन्तसोयाम जिसणाहं, संखकाहलतूरनिग्घोसग ज्जियरवपूरियदिसं, अयालदुद्दिणं पिव समन्तओ वियभियं नारदसाहणं ति । एत्थन्तरम्मिय रहवरारूढे पुरुषैः । यथा -- महाराज ! अतिविषमपराक्रमगर्वितम्, विषमद्रोणीमुखप्रविष्टम्, अकृतपरिरक्षणोपायम् - अप्रमत्तेन मानभङ्गनरपतिना इतरथा विषयविनाशमवलोक्य, वीरचरितमवलम्ब्य विश्वस्तसुप्तेषु नरेन्द्रपदातिषु याते अर्धरात्रसमये अस्तमिते रजनी वधूप्रियतमे त्रैलोक्य मङ्गल दीपे मृगाङ्क सकलबलसहितेन अवस्कन्दं दत्त्वा अतिप्रमत्तं तव विनिर्जितं सैन्यम् । सम्प्रति देवः प्रमाणमिति । ततो राज्ञा एतत् सुदुःसहं वचनमाकर्ण्य कोपानलज्वलित रक्तलोचनेन विषमस्फुरिताधरेण निर्दयकराभिहतधरणीपृष्ठेन, अमर्षवश परिस्खलद्वचनेन समाज्ञप्तः परिजनः । यथा - दत्त त्वरितं प्रयाणकपटहम्, सज्जयत दुर्जयं करिबलम्, पर्याणयत दर्पोद्धरं अश्वसाधनम्, संयात्रयत ध्वजमालोपशोभितं स्यन्दननिवहम् प्रवर्तयत नामप्रहरणशालि पदातिसैन्यमिति । ततो नरपतिसभादेशानन्तरमेव आकर्ण्य प्रयाणकपटहशब्दम् करिवरविराज मेघजालम्, उच्छ्रित- ध्वज चामर - छत्र संघात - बलाकापरिगतम्, निशित करवाल - कुन्त-सौदामिनि सनाथम्, शङ्ख-काहल तूर - निर्घोष गर्जित रवपूरितदिशम्, अकालदुर्दिनमिव समन्ततो विजृम्भितं नरेन्द्रसाधनमिति । अत्रान्तरे च रथवरारूढे नरेन्द्रगुणसेने स्थापिते पुरतः सलिलपूर्णे कनककलशे, प्रहते मनुष्यों ने आकर निवेदन किया, "महाराज ! अत्यन्त भयंकर पराक्रम से गर्वित, अव्यवस्थित परिजनों से रक्षित नगर में प्रविष्ट, रक्षा के उपाय को बिना किये ही, महाराज की पैदल सेना जब निश्चिन्त होकर सोयी हुई थी, अर्धरात्रि का समय बीत जाने पर जब कि तीनों लोकों का कल्याणकारक दीपक एवं रात्रिरूपी वधू का प्रियतम चन्द्रमा अस्त हो गया था, राज्य का विनाश देखकर, वीरचरित का अवलम्बन लेकर, अप्रमादी मानभंग राजा ने दूसरे प्रकार से सम्पूर्ण सेना सहित आक्रमण कर अतिप्रमत्त आपकी सेना को जीत लिया। अब आप ही प्रमाण हैं (अर्थात् अब जो आवश्यक हो उसे करें ) ।” राजा ने इस दुःसह वचन को सुनकर सेवकों को आज्ञा दी । उस समय क्रोधरूपी अग्नि से जलते हुए उसके नेत्र लाल हो रहे थे, अधर विषम रूप से फड़फड़ा रहे थे, निर्दय हाथों से पृथ्वी ताड़ित हो रही थी, क्रोधवश उसके वचन स्खलित हो रहे थे । ( राजा ने शीघ्र आज्ञा दी ) " शीघ्र ही गमन करने का नगाड़ा बजा दो, कठिनाई से जीती जानेवाली हाथियों की सेना सज्जित करो, दर्प से उद्धत घोड़ों पर जीन वगैरह बाँधो, ध्वजा और माला से शोभित रथों के समूह को ले जाओ, अनेक प्रकार के प्रहार करनेवाली पैदल सेना को प्रवृत्त करो ।” तब राजा के आदेश के बाद ही गमनकालीन नगाड़े के शब्द सुनकर श्रेष्ठ हाथी मेघसमूह के समान शोभायमान होने लगे । उठे हुए ध्वज, चामर तथा छत्रों का समूह बगुलाओं की पंक्ति से घिरे हुए के समान लगने लगा। तीक्ष्ण तलवार और भाले विद्युत्-युक्त हो गये ( चमक उठे ) । शंख, काहल और भेरी की गर्जना से दिशाएँ भर गयीं । असामयिक वर्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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