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________________ ૪ अय समयजोगपट्टयपमाणसंगमकयासणविसेसो । तावसकुलप्पहाणो अज्जवकोडिण्णनामो त्ति ॥ ४४ ॥ पेच्छिऊण य हरिसवसुल्ल सियरोमंचेणं, धरणिनिमियजाणुकरयलेणं, उत्तिमंगेणं पुणो पुणो पहयखितलेणं 'अहो ! धन्नो, अहो ! धन्नो त्ति भणमाणेणं पणमओ तेणं । तेण वि य तं तहा पेच्छिऊण अतिहिबहु नाणकरणलालसेण झाणजोगं पमोत्तूनं सागयवयणपुरस्सरं - अहो ! आसणं आसणं ति भणमाणेणं बहुमन्नि । तओ उडयंगण निसेवितावसकुमारोवणीए' इसिणा य 'उवविससु सत्य' त्ति भणिओ सविणयं उवविट्ठो विट्ठरे त्ति । पुच्छिओ य इसिणा कुओ भवं आगओ ? त्ति । ओ तेण सवित्थरो निवेइओ से अत्तणो वृतंतो। भणिओ य इसिणा-वच्छ ! पुण्वकय कम्मपरिणइवसेणं एवं परिकिलेस भाइणो जीवा हवंति । ता नरिदावमाणपीडियाणं दारिद्ददुक्खपरिभूयाणं, दोहग्गकलंकदूमियाणं, इट्ठजणविओगदहरणतताग य एयं परं इह-परलोय सुहावहं परमनिव्वुइट्ठाणं ति । एत्थ - अतसीमययोगपट्टक- प्रमाण-संगतकृतासनविशेषः । तापसकुल प्रधानः आर्जव कौण्डिन्यनामेति ॥ ४४ ॥ [ समराइच्चकहा प्रेक्ष्य च हर्षवशोल्लसित रोमाञ्चेन, धरणी स्थापितजानुकरतलेन, उत्तमाङ्गेन पुनः पुनः प्रतक्षितितलेन 'अहो ! धन्यः, अहो ! धन्यः' इति भणता प्रणतस्तेन । तेनाऽपि च तं तथा प्रेक्ष्य अतिथिबहुमानकरणलालसेन ध्यानयोगं प्रमुच्य स्वागतवचन पुरस्सरम्- अहो ! आसनम् आसनम् इति भणता बहुमानितः । तत उटजाङ्गणनिषेवितापसकुमारोपनीते ऋषिणा च ' उपविश अत्र ' इति भगतः सविनयम् उपविष्टो विष्टरे इति । पृष्ट ऋषिणा – कुतो भवान् आगत इति । ततस्तेन सविस्तरो निवेदितस्तस्य आत्मनो वृत्तान्तः । भणितश्च ऋषिणा - वत्स ! पूर्वकृतकर्मपरिणतिवशे नैव परिक्लेशभाजिनो जीवा भवन्ति । तस्माद् नरेन्द्रापमानपीडितानाम्, दारिद्र्यदुःखपरिभूतानाम्, दौर्भाग्य कलङ्कदूनानाम्, इष्टजनवियोगदहनतप्तानां चैतत् परं इह-परलोक-सुखावह-परमनिर्वृतिस्थानमिति । अत्र Jain Education International और अन्य समस्त कार्यों को उसने छोड़ रखा था । अतसी की छाल से बने हुए योगपट्ट (योगियों द्वारा धारण किये गये वस्त्र ) के बराबर किये हुए आसनविशेष से युक्त था ।।४१-४४ ।। उस तापसी को देखकर हर्ष के कारण रोमाञ्चित हो धरातल पर घुटने और हथेलियाँ टिकाकर अपने (मस्तक) को बार-बार पृथ्वीतल पर लगाते हुए, अहो धन्य, अहो अन्य कहते हुए, उस अग्निशर्मा ने उस तापसी को प्रणाम किया। उस आर्जव कौण्डिन्य नामक ऋषि ने भी उसे उस प्रकार देखकर अतिथि का सम्मान करने की लालसा से ध्यानयोग छोड़कर स्वागत वचनपूर्वक 'ओह ! आसन, आसन' (आसन लाओ ) कहते हुए बहुत सम्मान दिया । अनन्तर कुटी के आँगन में रखी हुई चौकी पर, जिसे एक तापस कुमार लाया था, ऋषि द्वारा 'इस पर बैठो' ऐसा कहने पर वह उस पर बैठ गया। ऋषि ने पूछा, "आप कहाँ से आये हैं ?" तब उसने विस्तारपूर्वक अपना वृत्तान्त निवेदन किया । ऋषि ने कहा, "वत्स ! पहले किये हुए कर्मों के परिणामस्वरूप ही जीव इस तरह के दुःखों के पात्र होते हैं । अतः राजा के अपमान से पीड़ित, निर्धनता के दुःखों से तिरस्कृत, दुर्भाग्य के कलङ्क से दुःखी और इष्टजनों के वियोगरूपी दाह से सन्तप्त लोगों के लिए इस लोक और परलोक में सुख देते. वाला यह परम शान्ति का स्थान है । यहाँ पर - १. उत्तिमंगेण, २. कुमारोवणीओ, ३ पुच्छिओ इसिणा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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