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________________ ४४६ (समराहचकहा गहियाई । अणुव्वयाइं पविट्ठो नार। कओ से पिउणा जुवरज्जाहिसेओ। पचत्तो सेविउ भयवंतं सणंकुमारायरियं । वित्तो मासकप्पो । गओ भयवं। एत्थंतरम्मि सो धणसिरीजीवनारओ तओ नरयाओ उव्वट्टिऊण संसारमाहिडिय अणंतरजम्मम्मि य तहाविहं कपि अामनिज्जरं पाविऊण मओ समाणो समुप्पन्नो इमस्स चेव जयकुमारस्स भाउयत्ताए त्ति। जाओ कालक्कमेण, पइट्ठावियं च से नाम विजओ त्ति । पत्तो कुमारभावं। कल्लहो जयकुमारस्स, अवल्लहो जयकुमारो विजयस्स' । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया असारयाए संसारस्स निरवेक्खयाए मच्चुणो विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स सपज्जवसाणयाए जम्मणों पंचत्तमुवगओ राया। अहिसित्तो रंज्जम्मि सामंतमंडलेण जयकुमारो।जिओ य पओसेण पलायमाणो रज्जट्टिई काऊण बद्धो रचितएहिं जाओ य से जणणीए सोओ। अन्नया य अत्याइयामंडवगयस्स राइणो आगया समुद्दवीई विय मुत्तानियरवाहिणी पाउससिरी विय समुगहीतान्यणवतानि । प्रविष्टो नगरोम् । कुतस्तस्य पित्रा यौवराज्याभिषेकः । प्रवत्तः सेवित भगवन्तं सनत्कुमाराचार्यम् । वृत्तो मासकल्पः । गतो भगवान् । अत्रान्तरे स धनश्रीजीवनारकस्ततो नारकादुद्वत्य संसारमाहिण्ड्य अनन्त रजन्मनि च तथाविधां कामपि अकामनिर्जरां प्राप्य मृतः सन् समुत्पन्नोऽस्यैव जयकुमारस्य भ्रातृतयेति । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम विजय इति । प्राप्तः कुमारभावम् । वल्लभो जयकुमारस्य, अवल्लभो जय कमारो विजयस्य । एव चातिक्रान्तः कोऽपि काल: । अन्यदाऽसारतया संसारस्य निरपेक्षतया मृत्योविचित्रतया कर्मपरिणामस्य सपर्यवसानतया जन्मनः पञ्चत्वमुपगतो राजा। अभिषिको राज्ये सामन्तमण्डलेन जयकुमारः । विजयश्च प्रद्वेषण पलायमानो राज्यस्थिति कृत्वा बद्धो राज्य चिन्तकैः । जातश्च तस्य जनन्या: शोकः । अन्यदा चास्थानिकामण्डपगतस्य राज्ञ आगता समुद्रवीचिरिव मुक्तानिक रवाहिनो, प्रावटोरिव समुन्नतपयोधरा यह ऐसा ही है, अन्य प्रकार का नहीं।' वह) अणुव्रत ग्रहण कर (अनन्तर) नगर में प्रविष्ट हुआ। उसके पिता ने उसका युवराज पद पर अभिषेक किया। (वह) भगवान् सनत्कुमार आचार्य की सेवा करने लगा। माह भर का नियम पूरा हुआ। भगवान् प्रस्थान कर गये। इसी बीच वह धनश्री का जीवनारकी उस नरक से निकलकर, संसार में भ्रमणकर, अनन्तर जन्म में किसी प्रकार अकामनिर्जरा मरकर इसी जयकुमार के भाई के रूप में आया। कालक्रम से उत्पन्न हआ। उसका नाम विजय रखा गया। वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ । जयकुमार का वह प्रिय था, किन्तु विजय को जयकुमार अप्रिय था। इस प्रकार कुछ समय बीता । एक बार संसार की असारता, मृत्यु की निरपेक्षता, कर्मपरिणति की विचित्रता तथा जन्म की समाप्तियुक्तता से राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ। सामन्तसमूह ने राज्य पर जयकुमार का अभिषेक किया। विजय द्वेषवश भागने लगा। राज्य की स्थिति कर (उसे) राज्य के चिन्तकों ने बांध लिया। उसकी माँ को शोक हुआ। एक बार जब राजा सभामण्डप में बैठा हुआ था, तब प्रतीहारी आयी । वह प्रतीहारी मोतियों के समूह को वहन करने वाली समुद्र की तरंगों की भांति मोतियों के समूह को धारण किये हुए थी। समुन्नत पयोधरों (मेघों) वाली वर्षा ऋतु की शोभा की तरह वह उन्नत पयोधर (स्तनों) वाली थी। चन्दन की गन्ध को वहन करने वाली मलय की मेखला की तरह वह प्रतीहारी भी चन्दन की गन्ध को वहन कर रही थी। वसन्तलक्ष्मी के समान सुदर पत्र १. एयस्स-क । २. जंतुणो-क ३. अन्नत्थ वच्चमाणो-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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