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________________ [ समराइच्चकहा ४३८ दिन्नं पारितोसियं । कारावियं बद्धावण्यं जाव संपन्नो मासो ति । अजियबलापभावेण पाविया रालच्छित्ति' काऊण अणाए चेव उवलद्धो' क्यं च से नामं अजियबलो ति । पत्तो कुमार भावं । एत्थंतरमि समुन्ना मे चिंता को दाणि कालो अम्मापिईणं' विद्वाणं ति । दुप्पडियाराणि अम्मापियरो लोयमि भवंति । अन्नं च । किं ताए रिद्धीए सेसफणारयणलाभतुल्लाए, जा सुयणेहि न भुत्ता, जा न य दिट्ठा खलयणेहिं । ता सम्बं पुच्छिऊण विज्जाहरनरिंदे अजियबलं भयवई च गच्छामि सदेति चितिऊण संपाडियं समोहियं । अमणुन्नियं च तेहि । निरुविऊण कोट्टवालं देवोसहं' निग्गओ राया मया चडगरण, अजियबलविउब्विए तेलोक्कविम्हयजणए विमाणमारूढो विलासवइसमेओ कुमार अजियबलेण य । इवयदिय हेहि पत्तो सेयवियं, आवासिओ सव्वरिउसमूह सन्निहे उज्जाणे, पेसिओ मए पवगगई निवेइउं तायस्स, पविट्ठो पडिहारसंसइओ तायस्यासं निवेइयं कथंजलिउडेण ममागमणं । तओ आणंदबाहजलभरियलोयणो कंटइयसव्वंगों उट्ठओ महाराओ; निग्गओ सयलं कम् | कारितं वर्धापनकं यावत्सम्पन्नो मास इति । अजितबलाप्रभावेण प्रापिता राज्यलक्ष्मीरिति कृत्वा अनयैवोपलब्ध (इति) कृतं च तस्य नाम अजितबल इति । प्राप्तः कुमारभावम् । अत्रान्तरे समुत्पन्ना मे चिन्ता - इदानीं कालो मातापितृणां दृष्टानामिति । दुष्प्रतिकाराश्च मातापितरो लोके भवन्ति । अन्यच्च किं तथा ऋद्धया शेषफणा रत्नलाभतुल्यया, या सुजनैर्न भुक्ता, या न च दृष्टा खलजनैः । ततः सम्यक् पृष्ट्वा विद्याधरनरेन्द्रान् अजितबलां भगवतीं च गच्छामि स्वदेशमिति चिन्तयित्वा सम्पादितं समोहितम् । अनुमतं च तैः । निरूप्य कोट्टपालं देवर्षभं निर्गतो राजा महता चटकरेण (आडम्बरेण ), अजितबलाविकुर्वितं त्रैलोक्यविस्मयजनकं विमानमारूढो विनासतासमेतः कुमाराजितबलेन च । कतिपयदिवसैः प्राप्त श्वेतविकाम् । आवासितः सर्वर्तुसमूहन्तिभ उद्याने प्रषितो मया वनगतिनिवेदयितुं त तस्य । प्रविष्टः प्रतोहार संसूचितः तातसकाशम् । निवेदितं कृताञ्जलिपुटेन ममागमनम् । तत आनन्दवाष्पजलभृतलोचनः कण्टकितसर्वाङ्ग उत्थिता महाराजः निर्गतः सक नान्नाःपुरामात्य- महासामन्त- नागरैश्च परिधृतः । दी। (मैंने) पारितोषिक दिया। एक मास होने पर महोत्सव कराया । अजितबला के प्रभाव से राजलक्ष्मी पायी । इस कारण इसी से ही प्राप्त हुआ है-ऐसा मानकर उसका नाम 'अजितबल' रखा । ( वह) कुमारावस्था को i प्राप्त हुआ। इसी बीच मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई। इस समय माता-पिता के दर्शन का कौन-सा काल है ? लोक मातापिता का प्रतिकार करना कठिन है। दूसरी बात यह है कि सर्प के फण में रत्न होने के तुल्य उस ऋद्धि से क्या लाभ जिसका भोग सज्जनों ने नहीं किया और जिसे दुष्टों ने नहीं देखा । अतः विद्याधर राजाओं तथा भगवती अजितबला से भलीभाँति पूछकर अपने देश को जाऊँगा - ऐसा सोचकर इष्टकार्य किया। उन्होंने अनुमति दे दी । देवर्षभ को कोट्टपाल ( नगररक्षक) नियुक्त कर बड़े ठाठ-बाट के साथ राजा, अजितबला द्वारा विक्रिया से निर्मित तीनों लोकों को विस्मय में डालने वाले विमान पर आरूढ़ हो कुछ दिनों में श्वेतविका पहुँच गया । जिसमें सभी ऋतुएं विद्यमान थीं, ऐसे उद्यान में ठहर गये। मैंने पवनगति को पिता से निवेदन करने के लिए भेजा । प्रतीहार से अनुमति लेकर पिता के पास गया। हाथ जोड़कर अपने आने का निवेदन किया । तब आनन्द के आँसू आंखों में भरकर समस्त जंगों में रोमांच उत्पन्न हुए महाराज उठे और समस्त अन्तःपुर १. पारिया रायउलव्वित्ति - ख २ उवलद्धो जाओ मे पुत्ता- ख । ३. प्रम्माविऊणक । ४. दुष्पडियारा य मायापियरो भवन्ति लोयम्मिक । ५. फणाजाल क । ६. देोषयं क । ७. निवेइओ - ग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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