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________________ पचमो भवो] ४२३ य विज्जाहरविमाणारूढा 'अज्ज वसुभूई परित्तायाहि परित्तायाहित्ति अक्कंदमाणी देवी। संभमविसेसओ संजायासंकेण निरूविया गुहाए जाव नस्थि । तओ विमाणाणुसारेणं धाविओ मग्गओ, न पावियं च विमाणं । अओ न याणामि; संपयं कहिं देवि त्ति । मए चितियं । विज्जाहरेण हरिया देवी। अत्थि य मे गयणगमणसत्ती। ता कहिं सो नइस्सइ। भणिओ य वसुभई-परिच्चय विसायं । सिद्धा मे अजियबला । ता थेवमेयं ति । एत्थंतरम्मि समागया विज्जा। भणियं च तीएवच्छ, किमयं ति । साहियो से वुत्तंतो । को पुण तुम' परिहवइ त्ति कुविया य एसा। पेसिया दिसो विसं तीए अन्नेसणनिमित्तं पवणगइप्पमुहा विज्जाहरा। विज्जासमाएसेण य ठिया अम्हे तहिं चेव मलयसिहरे । तइयदियहम्मि य समागओ पवणगई । भणियं च तेण। देव, उवलद्धा देवी। मए भणियं--कत्थ उवलद्ध ति । तेण भणियं-देव, सुण। अत्थि वेयड्ढपव्वए रहनेउरचक्कवालउरं नाम नयरं । तत्थ उवलद्ध त्ति । मए भणियं-कहं विय । तेण भणियं-देव, सुण। पत्थिओ देवसमाएसेणाहं परिन्भमंतोगओरहनेउरचक्कवालउरं नयरं। दिढेच तं सव्वमेव उद्विग्गजणवयं सवाय दष्टा च विद्याधरविमानारूढा 'आर्य वसुभते ! परित्रायस्व परित्रायस्व'. इत्याक्रन्दमाना देवी। सम्भ्रमविशेषतः सजाताशकेन निरूपिता गुहायां यावन्नास्ति । ततो विमानानुसारेण धावितो मार्गतः (पृष्ठतः), न प्राप्तं च विमानम् । अतो न जानामि साम्प्रतं कुत्र देवीति । मया चिन्तितम्विद्याधरेण इता देवी। अस्ति च मे गगनगमनशक्तिः , ततः कत्र स नेष्यति । भणितश्च वसभतिः । परित्यज विषादम, सिद्धा मेऽजितबला, ततः स्तोकमेतदिति । अत्रान्तरे समागता विद्या । भणितं च तया-वत्स ! किमेतदिति । कथितस्तस्यै वृत्तान्तः । 'क: पुनस्त्वां परिभवति' इति कुपिता चैषा। प्रेषिता दिशि दिशि तयाऽन्वेषणनिमित्तं पवनगतिप्रमुखा विद्याधराः। विद्यासमादेशेन च स्थिता वयं तत्रैव मलयशिखरे। तृतीयदिवसे च समागतः पवनगतिः। भणितं च तेन-देव ! उपलब्धा देवी। मया भणितम्-कुत्रोपलब्धेति । तेन भणितम्-देव ! शृणु। अस्ति वैताढ्यपर्वते रथनपुरचक्रवालपुरं नाम नगरम् । तत्रोपलब्धेति। मया भणितं--कथमिव । तेन भणितम्-देव! शृण । प्रस्थितो देवसमादेशेनाहं परिभ्रमन् गतो रथनपुरचक्रवालपुरं नगरम् । दृष्टं च तत्सर्वमेवोद्विग्नब्रज आरूढ़ 'आर्य वसुभूति ! बचाओ, बचाओ'-ऐसा चिल्लाती हुई देवी को देखा। घबड़ाहट विशेष से आशंका उत्पन्न हो जाने के कारण गुफा में देखा, (वह) नहीं दिखाई दी। अनन्तर विमान के पीछे भागा, किन्तु विमान प्राप्त नहीं हुआ । अतः नहीं जानता हूँ, इस समय देवी कहाँ हैं ? मैंने सोचा-विद्याधर ने देवी को हर लिया, मेरी आकाश में गमन करने की शक्ति है, अतः वह कहाँ ले जायगा ? वसुभूति से कहा-'विषाद छोड़ो, मुझे अपराजिता विद्या सिद्ध हुई है. अतः यह छोटी-सी बात है।' इसी बीच विद्या आयी। उसने कहा- 'वत्स ! क्या बात है?' उससे वत्तान्त कहा। 'कौन तम्हारा तिरस्कार करता है'.-ऐसा कहकर वह कूपित हई । उसने हर ति प्रमख विद्याधरों को भेजा। विद्या की आज्ञा से हम उसी मलयशिखर पर रहे । तीसरे दिन पवनगति आया। उसने कहा-'महाराज ! देवी प्राप्त हो गयीं। मैंने कहा 'कहाँ प्राप्त हुईं ?' उसने कहा'सुनो ! वैताढ्य पर्वत पर रथन पुरचक्रवालपुर नाम का नगर है, वहाँ पर उपलब्ध हुई। मैंने कहा- 'कसे ?' उसने कहा-'महाराज ! सुनो-~महाराज की आज्ञा से प्रस्थान कर घूमता हुआ रथनपूरचक्रवाल' पूर नगर गया। वहाँ पर सभी मनुष्यों को उद्विग्न देखा। समस्त आयतनों में पूजा, प्रार्थना की जा रही थी, चलते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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