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________________ [सम इन्वहां सत्तलक्खिओ मंतजावो । पूराणि य से समं पणइमणोरहेहिं अज्जेव सत्त राइंदियाइं, भबिस्सइ य सुए सामिणो विज्जासिद्धी । अओ अवगच्छामि, एइहमेत्तखेत्तमझगया न विवन्ना ते पिययमा; जओ उज्जत्ता सामिकज्जे बिज्जाहरा। तओ मए चितियं-एवमेयं जुत्तिसंगयं च । भन्महा कहं पडरयणपाउयाए केवलपडरयणगसणं, कहं वा तक्खणोवभुत्ताए तहा मंडलिकरणं अयगरस्स त्ति । चितिऊण भणिओ विज्जाहरो-भो महापुरिस, जइ एवं, ता पुज्जंतु ते मणोरहा । आसासिओ अहं भयवया, नियत्तिओ अकुसलवयसायाओ। ता चिट्ठ तुमं, अहं पुण गच्छामि पिययमं अन्नेसिउं । विज्जाहरेण भणियं-अलं किलेसेण । अहमेव कल्लं संपाडियदेवसासणो पडिपुण्णमणोरहो' सेसविज्जाहरेहितो उपलहिऊण' जट्ठियं वृत्तंतं पिययमं ते घडिस्सामि । तओ मए 'अलंधणीयषयणो सुहि त्ति चितिऊण 'जं तुम भणति' ति बहुमन्निओ विम्जाहरो। __ अइक्कंतो वासरो। अद्धजामावसेसाए रयणोए अयंडम्मि चेव उज्जोवियं(य)नहंगणं, संखुहियजलनिहि' पयंपियमहियल' गिजंतमंगलं च समागयं सुरविमाणागारमणुगरेंतं विज्जाहरविमाणं । समं प्रणयिमनोरथैरद्य व सप्त रात्रिदिवानि, भविष्यति च श्वा स्वामिनो विद्यासिद्धिः । अतोऽवगच्छामि एतावन्मात्रक्षेत्रमध्यगता न विपन्ना ते प्रियतमा, यत उद्युक्ताः स्वामिकार्ये विद्याधराः। ततो मया चिन्तितम्-एवमेतद् युक्तिसंगतं च । अन्यथा कथं पटरत्नप्रावृतायाः केवलपट रत्नग्रसनम्, कथं या तत्क्षणोपभुक्तायां तथा मण्डलाकरणमजगरस्येति। चिन्तयित्वा भणितो विद्याधरः । भो महापुरुष! यद्य वं ततः पूयन्तां ते मनोरथाः । आश्वासितोऽहं भगवता, निवतितोऽकुशलव्यवसायात् । ततस्तिष्ठ त्वम्, अहं पुनर्गच्छामि प्रियतमामन्वेषयितुम् । विद्याधरेण भणितम्-अलं क्लेशेन । अहमेव कल्ये सम्पादितदेवशासनः प्रतिपूर्ण मनोरथः शवविद्याधरेभ्य उपलभ्य यथास्थितं वृत्तान्तं ते प्रियतमां घटयिष्यामि । ततो मया ‘अलवनीयवचनः सुहृद्' इति चिन्तयित्वा 'यत्त्वं भणसि' इति बहुमानितो विद्याधरः। अतिक्रान्तो वासरः । अर्धयामावशेषायां रजन्यामकाण्डे एवोद्योतितनभोऽङ्गणम् संभोभितजलनिधि, प्रकम्पितमहीतलम्, गीयमानमङ्गलं च समागतं सुरविमानाकारमनुकुर्वद् सिद्धि के निमित्त अपने शरीरभूत विद्याधरों को नियुक्त कर अकेले ही स्फटिकमणिवलय लेकर सिद्धिनिलय नामक मलयगिरि की गुफा में प्रविष्ट हआ। उसने सात लाख मन्त्रों का जाप प्रारम्भ किया। उ प्रिय मनोरथों से युक्त सात रात-दिन आज ही पूर्ण हुए हैं। फल स्वामी को विद्यासिद्धि होगी। अतः मैं जानता हूँ कि इतने क्षेत्र के बीच तुम्हारी प्रियतमा नहीं मरी होगी, क्योंकि स्वामी के कार्य में विद्याधर उद्यत ये।' तब मैंने सोचा-'यह (बात तो) ठीक है और युक्तिसंगत है, अन्यथा वस्त्ररत्न से ढकी हुई होने पर कैसे केवल वस्त्ररत्न को निगला, उसी क्षण यदि खा ली गयी होती तो अजगर कैसे कुण्डली बांध सकता था-ऐसा सोचकर विद्याधर से कहा- महापुरुष ! यदि ऐसा है तो मेरे मनोरथ पूर्ण हों । भगवान ने मुझे अकुशल कार्यों से रहित होने का आश्वासन दिया था, अत आप ठहरें । मैं प्रियतमा को खोजने के लिए जाता हूँ।' विद्याधर ने कहा-'कले श मत करो। मैं ही कर महाराज की आज्ञापूर्ण होने पर पूर्णमनोरथ वाला होकर शेष विद्याधरों से सही वृत्तान्त प्राप्त कर तुम्हारी प्रियतमा को मिला दूंगा'। तब मैंने-'मित्र के वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए' .-ऐसा सोचकर 'जैसा आप कहें' कहकर विद्याधर का आदर किया। दिन बीत गया। जब रात्रि का आधा प्रहर मात्र शेष रह गया था तब असमय में ही आकाशरूपी आँगन को प्रकाशित करता, समुद्र को क्षोभित करता, पथ्वी को कम्पित करता तथा मंगल गीत गाता हुआ, देवताओं । ४. सुणहि-ख । ५. संखुहिओ जलनिही-क-ग । १. परिपुण्ण-क। २. उवलभिऊण-ख। ३.......मि त्ति- ६. पयिर्य महियल-क-ग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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