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________________ ३६ [समराइचकहा होमम्मि चेव मंगलं ति कलिय पज्जालिओ हुयवहो । निययाहरणभूसिया समप्पिया मे विलासवई । गहिया य सा मए पढम हियएणं पच्छा करयलेणं । भमियाइं मंडलाइं । पमिया भयवई । तस्समाएसेणं च गयाइं अम्हे तोवणासन्नं चेव सुंदरवणं' नाम उज्जाणं । पुण समवाओ विय उऊणं निवासो विय गंधरिद्धीए कुलहरं विय वणस्सइणं आययणं विय मयरद्धयरस । तत्थ वि य कापूररससिच्चमाणमालईगुम्मवेढियं पविट्ठाई एलालयापिणद्धं हरिचंदणगहणं। तत्थ य महुयररुयगीयसणाहं मंदमलवाणिलवसनच्चिरीओ पियंगुमंजरीओ अन्ने य अउध्वविन्भमे लोयणसुहए तरुगणे पेच्छमाणाणमइक्कतो वासरो। विरइयं पल्लवसयणिज्ज । पसुत्ताइं च अम्हे । समुप्पन्नो वीसंभो । अइक्कंता रयणी । एवमणुदियहं चिट्ठताणं अइक्कतेसु य कइवयदिणेसु उवगयाइं अम्हे कुसुमसामिहेयस्स । गहियाई मए फलाई। विलासवई पुण पवणवसपकंपियाहिं सोउमल्ललोहेण विय परामुसिज्जमाणी वणलयाहिं उभिन्नकलियानियरेहिं च रोमंचिएहि विय पुलोइज्जमाणी तरुवरेहि कुसुमगंधलोहिल्लयाए य उवरि निवडमाणेणं भमरजालेण समत्तपओयणा वि अक्खित्तहियया 'एहि गच्छामो' ति प्रथमं हृदयेन पश्चात्करतलेन । भ्रमितानि मण्डलानि । प्रणता भगवती । तत्समादेशेन च गतावावां तपोवनासन्नमेव सुन्दरवनं नामोद्यानम् । तत् पुनः समवाय इव ऋतूनां निवास इव गन्धऋद्ध्याः कुलगृहमिव वनस्पतोनामायतनमिव मकरध्वजस्य । तत्रापि च कर्पूररससिच्यमानमालतागुल्मवैष्टितं प्रविष्टौ एलालतापिनद्धं हरिचन्दनगहनम् । तत्र च मधुकररुतगोतसनाथं मन्दमलयानिलबशनत्यन्ताः प्रियङगमजरोरन्याश्चापूवविभ्रमान लोचनसूखदान तरुगणान प्रेक्षमाणयोरतिक्रान्तो वासरः । विरचितं पल्लवशयनीयम । प्रसप्तौ चावाम। समत्पन्नो विश्रम्भः । अतिक्रान्ता रजन एवमनुदिवसं तिष्ठतोरतिक्रान्तेषु च कतिपयदिवसेषु उपगतावावां कुसुमसामिधेयाय (कुसुमकाष्ठसमूहाय) । गृहीतानि मया फलानि । विलासवती पुनः पवनवशप्रकम्पिताभिः सोकुमार्यलोभेनेव परामृश्यमाना वनलताभिरुद्भिन्नकलिकानिकरैश्च रोमाञ्चितैरिव प्रलोक्यमाना तरुवरैः कुसुमगन्धलाभितया चोपरि निपतता भ्रमरजालेन समाप्तप्रयोजनाऽप्याक्षिप्तहृदया 'एहि गच्छावः' कुण्ड में ही मंगल मानकर अग्नि जलायी । अपने आभरणों से भूषित विलासवती को मुझे समर्पित किया । पहले मैंने उसे हृदय से ग्रहण किया, बाद में हाथ से । फेरे हए। भगवती को प्रणाम किया । उसकी आज्ञा से हम दोनों तपोवन के समीपवर्ती सुन्दरवन नामक उद्यान में गरे । वह उद्यान ऋतुओं का भेला था, गन्धऋद्धियों का निवास था, वनस्पतियों का कुलगृह था और कामदेव का आयतन था! कपूर के रस से सींची हुई मालती के गुच्छे से वेष्टित इलायची को लता से लिपटे तथा हरिचन्दन से सबन था वह उद्यान । उस उद्यान में भौंरों के गीतों से युक्त, मन्द मलयवायु के वश नृत्य करती हुई प्रियं गुमंजरी और अपूर्व विभ्रमवाले नेत्रों को सुख देने वाले दूसरे वृक्षों को देखते हुए दिन व्यतीत हो गया। पत्तों की शैया बनायी। हम दोनों सो गए । (हम दोनों को एक दूसरे के प्रति) विश्वास उत्पन्न हुआ। रात बीती । इस प्रकार प्रतिदिन रहते हुए कुछ दिन बीत जाने पर हम दोनों फूल और समिधा लाने के लिए गये । मैंने फल लिये । विलासवती वाय के द्वारा कैंपायी हई वन की लताओं द्वारा सुकुमारता के लोभ से स्पर्श की जा रही थी। जिनमें कलियाँ प्रकट हो आयी हैं ऐसे वृक्षों के द्वारा मानो रोमांचित होकर देख जा रही थी। भौंरों का समूह फूलों की गन्ध के लोभ से ऊपर गिर रहा था। प्रयोजन समाप्त होने पर भी आकर्षित हृदय वाली होने के कारण 'आओ चलें' ऐसा मेरे द्वारा कहे जाने पर भी फूलों के संग्रह से विरत नहीं १. वणं उज्जाणं-क, २. प्रणेय'"ग, ३. वुण-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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