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________________ ३९४ [समराइमकहा एकाए आयणियं ति लज्जावणयवयणाए जंपियं तीए-भयवइ, न तए कुप्पियन्वं; लज्जा' य मे अवरझड । तओ मए भणियं-रायउत्ति, अलं कोवासंकाए, न कोवणो तवस्सिजणो होइ। साहेहि ताट, कि तए एत्थ अउव्वो कोइ अइही दिट्ठो त्ति । तीए भणियं-सुयं चेव भयवईए। मए भणियंराय उत्ति, धीरा होहि; अमोहवयणो खु भयवं कुलवई। ता अवस्समा सन्नं ते पियं भविस्सइ । ता एहि ताव, गच्छम्ह आसमपयं । तओ 'जं भयवई आणवेइ'त्ति पडिसुयं तीए। गयाओ अम्हे आसमपयं । पेसिया य मए तुझ अण्णेसणनिमित्तं मुणिकुमारया । अप्पमत्ता य पोराणियकहाविणोएण ठिया अहं रायउत्तिसमीवे । निवेइयं च मे मुणिकुमारएहि-'न अम्हेहिं दिट्टो' त्ति। तओ अहं रायउत्तिसमौवे निउंजिय सयलपरि पण 'न अन्लो से जीविओवाओ' ति विचितिऊण एनागिणी चेव तज्झ अन्नेसणनिमित्तं इह आगय म्हि । दंसिओ य मे तुम अवस्तकज्जविणिओगदक्खाए भवि. पवाए। ता एहि, गच्छम्ह आसमपयं; जीवावेहि तं कंठगयपाणं अबंधवं कन्नयं ति। तओ मए भणियं - 'जं भयवई आणवेइ' ति। गयाइं तवोवणं। पविट्ठा पढमं चेव तावसी, मे प्रयोजनाकथनमिति । ततो हा धिक, सर्वमेव एतयाऽऽकणितमिति लज्जावनतवदनया जल्पितं तया-भगवति ! न त्वया कुपितव्यम्, लज्जा च मेऽपराध्यति । ततो मया भणितम्-राजपत्रि ! अलं कोपाशङ्कया, न कोपनः तपस्विजनो भवति। कथय तावत् किं त्वयाऽत्र अपूर्वः कोऽपि अतिथिदंष्ट इति ? तया भणितम्-श्रुतमेव भगवत्या। मया भणितम्-राजपुत्रि! धीरा भव, अमोघवचनः खलु भगवान् कुलपतिः । ततोऽवश्यमासन्नं ते प्रियं भविष्यति । तत एहि तावत, गच्छाव माश्रमपदम् । ततो 'यद् भगवती आज्ञापयति' इति प्रतिश्रुतं तया । गते आवामाश्रमपदम् । प्रेषिताश्च मया तवान्वेषणनिमित्तं मुनिकुमारकाः । अप्रमत्ता च पौराणिककथाविनोदेन स्थिताऽहं राजपुत्रोसमीपे। निवेदितं च मे मुनिकुमारकैः-'नास्माभिर्दष्टः' इति । ततोऽहं राजपुत्रीसमीपे नियुज्य सफलपरिजनं 'नाम्यस्तस्पा जीवितोपायः' इति विचिन्त्य एकाकिन्येव तवान्वेषणनिमित्तमिहागताऽस्मि । दर्शितश्च मे त्वमवश्यकार्यविनियोगदक्षया । भवितव्यतया तत एहि, गच्छाव आश्रमपदम, जीवय तां कण्ठगतप्राणामबान्धवां कन्यकामिति ।। ततो मया भणितम्-'यद् भगवत्याज्ञापयति' इति । गतौ तपोवनम् । प्रविष्टा प्रथममेव धिक्कार है, इसने सब सुन लिया, इस प्रकार लज्जा से मुख नीचा कर उसने कहा - 'भगवती! आप कुपित न हों, ममसे लज्जा (यह) अपराध करा रही है। तब मैंने कहा-'राजपूत्री ! क्रोध की अशंका मत करो, तपस्वीजन क्रोधी नहीं होते हैं । तो कहो, क्या तुमने कोई अपूर्व अतिथि देखा है ?' उस राजपुत्री ने कहा- 'भगवती ने सुन ही लिया है।' मैंने कहा-'राजपुत्री ! धीर होओ, भगवान् कुलपति अमोघ वचन वाले होते हैं । अत: अवश्य ही निकट समय में तुम्हारा प्रिय होगा। तो आओ, आश्रम की ओर चलें। तब 'जो भगवती आज्ञा दें'-ऐसा कहकर उसने स्वीकृति दी। हम दोनों माधम में गये । मैंने तुम्हें ढूढ़ने के लिए मुनिकुमार भेजे । अप्रमादी होकर पौराणिक माओं से विनोद करती हुई मैं राजपुत्री के पास रही । मुनिकुमारों ने मुझसे निवेदन किया- 'हमलोगों को नहीं दिखाई दिये ।' तब मैं राजपुत्री के साथ समस्त परिजनों को नियुक्त कर 'उसके जीने का अन्य कोई उपाय नहीं है'-ऐसा सोचकर अकेली ही तुम्हें खोजने के लिए आयी हूँ । होनहार से तुम मुझे अवश्य ही कार्य के उपयोग में दक्ष दिखाई दिये। तो आओ, हम दोनों आश्रम की ओर चलें। बान्धवों से रहित कण्ठगत प्राण वाली उस कन्या को जिलाओ। तब मैंने कहा-'भगवती की जैसी आज्ञा' । हम दोनों तपोवन गये । पहले तपस्विनी प्रविष्ट हुई, बाद में १. लज्जा मे-छ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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