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________________ ३७२ [ समरोइन्चकहा संभावीयइ। धिरत्यु एयस्स देवसद्दो। मए भणियं-भद्द, मा तायं अहि क्खिवाहि'; को एत्थ दोसो तायस्स, मम रेव पव्वकम्मपरिणई एस ति । तओ महासोयाभिभूएण भणियं विणयंधरेण-कमार, जइ एवं, ता आइसउ कुमारो, कि मए पावकम्मेण कायव्वं ति । मए भणियं-भद्द, आएसयारी तमं. पाधकम्मो अहं; ता सपाडेहि रायसासणं । किं मए दुट सीलेण जीवंतएण। तेण भणियं-मा एवमाइसउ कमारो, कि इमिणा असंबद्धपलावेण वयणविण्णासेण, जहाइ दुसोलो पावकम्मो: धन्नो तमं. भायणं सयलकल्लाणाणं आलओ सयलगुणरयणाणं, कप्पतरुभूओ सयलसत्ताणं । कि बहणा, निव्वइदाणकप्पो तेलोक्कस्स वि । ता जइ न चिन्नवेयव्वमेयं देवस्स, रक्खियव्वा सा रायपत्ती. ता चितेहि एत्थुवायं, जहा भवओ पाणधारणागंदियमणो देवस्स अणवराही हवामि ति। तओ मए चितियं-न वावाएइ एसो; अवावाएंतो य एवमवराहियं न पावेइ, जइ अलक्खिओ परिचणणं वसुभूइ बिइओ विप्पगिट्ठदेसंतरमुवगच्छामि ति। चितिऊण इमं चेव भणिओ विण पंधरो। भणियं च तेण-कुमार, को अन्नो उवायन्नु त्ति, ता अणुचिट्ठउ इणमेव कुमारो। अन्नं च -- पयट्ट चेव सम्भाव्यते । धिगस्तु एतस्य देवशब्दः । मया अणितम् -भद्र ! मा तातमधिक्षिप, कोऽत्र दोषस्तातस्य, ममैव पूर्वकर्मपरिणतिरेषेति। ततो महा शोकाभिभूतेन भणितं विनयन्वरेण-कमार ! यद्येवं तत आदिशतु कुमारः, कि मयः पापकर्मणा कर्तव्यमिति । मया भणितम्-भद्र । आदेशकारी त्वम, पापकर्माऽहम् ततः सम्पादय राजशासनम्। किं मया दृष्ट शीलेन जीवना । तेन भणितम् - मैवमादिशतु कुमारः, किमनेनासम्बद्धप्रलापेन वचनविन्यासेन, यथाऽहं दुष्टशीलः पापकमा, धन्यस्त्वम्, भाजनं सकलकल्याणानाम, आलय: सकलगुण रत्नानाम्, कल्पतरुभूतः सकलसत्त्वानाम्, कि बहुना, निर्वृतिदानकल्पस्त्रैलोक्यस्यापि । ततो यदि न विज्ञपयितव्यमेतत् देवस्य, रक्षितव्या सा राजदुष्टपत्नी, ततश्चिन्तयात्रोपायम, यथा भवत: प्राणधारणानन्दितमना देवस्यानपराधी भवामीति । ततो मया चिंतितम् न व्यापादयत्येषः, अव्यापादयंश्च एवमपराधितां न प्राप्नोति यदि अलक्षितः परिजनेन वसुभूतिद्वितीयो विप्रकृष्टदेशान्तरमुपगच्छामीति । चिन्तयित्वा इदमेव भणितो विनयन्धरः । भणितं च तेन-कुमार ! कोऽन्य उपायज्ञ इति, ततोऽनुतिष्ठत्विदमेव कुमारः। अन्यच्च-प्रवृत्तमेव वहनं सुवर्णभूमिम्, अद्यैव रजन्यां मोक्ष्यते विचारे कार्य करना, जो कि ऐसे पुरुषरत्नों के विषय में ऐसा होता है । उनके इस महाराज शब्द को धिक्कार है हैं मैंने कहा---'पिताजी को गाली मत दो, यहाँ पर पिताजी का क्या दोष है ? यह मेरे ही पूर्वकर्मों का फल है।' तब महान् शोक से अभिभूत होकर विनयन्धर ने कहा-'यदि ऐसा है. तो कुमार आदेश दें, मुझ पापी को क्या करना चाहिए ?' मैंने कहा-'भद्र! आप आज्ञा पालन करने वाले हैं, मैं पाप कर्म करने वाला हूँ, अत: राजा की आज्ञा का पालन करो। मुझ दुष्टशील के जीने से क्या लाभ ?' उसने कहा--कुमार ! ऐसा आदेश न दें। 'मैं दुष्टशील वाला और पापकर्म करने वाला हूँ। इस प्रकार की अटपटी बात के कहने से क्या लाभ है ? समस्त कल्याण के पात्र, समस्त गुणरूपी रत्नों के निवास, समस्त प्राणियों के लिए कल्पवृक्ष आप धन्य हैं । अधिक कहने से क्या' आप तीनों लोकों को दान करके भी सुख को प्राप्त करने वाले हैं। अतः इसे महाराज से निवेदन नहीं करना है और उस दुष्टा राजपत्नी की रक्षा करनी है, तो इस विषय में उपाय सोचो जिससे आपके प्राणधारण से अनिन्दित मन वाला होकर महाराज का अपराधो न होऊँ !' तब मैंने सोचा-यह मारता नहीं है तथा यदि परिजनों की जानकारी के बिना वसुभूति के साथ दूसरे देश को जाता हूँ तो न मारने पर भी यह अपराधी नहीं रहेगा-सोचकर मैंने विनयन्धर से यही कहा। वह बोला--'कुमार ! और कौन है जो उपाय को जानने वाला है ? अतः कुमार ऐसा ही करें। दूसरी बात यह है कि जहाज स्वर्णभूमि को जा ही रहा है, आज ही रात में छूटेगा । उसी १. अहिौक्खव-ख२,.."घणकपप्पो-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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