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________________ [ समराइच्चकहा भणियं न विन्नतं चेव मए महारायस्स; 'किमगेण असंबद्धपलावेणं' ति। अन्नहा अइक्कता कइवि वासरा सणंकुमारस्स मं पत्थेमाणस्स । न पडिवन्नं च तं मए। अज्ज उण सयमेवागच्छिऊण अपडिवज्जमाणी से हिययइच्छियं एवं कयत्थिय म्हि । तओ कुविओ राया। मालयं च तेण--अरे विणयंधर, लहुं तं दुरायारं कुलफंसणं वावाएहि त्ति । मए भणियं---जं देवो आणवेइ । राइणा भणियंतहा तए वावाइयवो, जहा न कोइ णं लक्खेइ त्ति। तओ मए चितियं-अहो दारुणे निउत्तो म्हि । एवंफला नरिंदपच्चासन्नया । धन्ना खु ते जणा, सेवंति जे निद्दुज्जणाई तवोवणाई। हाकिमेत्थ कायव्यं ति । सोहणं होइ, जइ सो दीहाऊ न वाव इज्जइ। समद्धासिओ चितापिसाइयाए 'तहावि य अलंघणीओ देवाएसो' त्ति पयट्टो एयवइयरेण । एत्थंतरम्मि छीयं केणावि तोरणपएसे। तमायण्णिऊण विलंबमाणो भणिओ सिद्धाएसनेमित्तिएण । भद्द विणयंधर, मा विलंबेहि; जओ सोम्मा' नाम सत्तमी एसा छिक्का आरोग्गप.ला अणंतरा अपुव्वअत्थलाभोत्तरा य । तहा य भणियमिणमिसीहि--- पतिसेहमजत्तं वा हाणि वुड्ढि खयं असिद्धि वा।। आरोग्गमत्थलाभं छोयम्मि पयाहिणदिसासु ॥४४६॥ महाराजाय 'किमनेनासम्बद्धप्रलापेन' इति। अन्यथाऽतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः सनत्कुमारस्य मां प्रार्थयमानस्य। न प्रतिपन्नं च तन्मया। अद्य पुनः स्वयमेवागत्याप्रतिपद्यमाना तस्य हदयेप्सितमेवं कथिताऽस्मि । ततः कपितो राजा। भणितं च तेन-अरे विनयन्धर ! लघु तं दुराचारं कुलपांसनं व्यापादयेति । मया भणितम्-यद देव आज्ञापयति । राज्ञा भणितम् --तथा त्वया व्यापादयितव्यो यथा न कोऽपि तद् लक्ष यतीति ततो मया चिन्तितम्-अहो दारुणेनि युक्तोऽस्मि । एवं फला नरेन्द्रप्रत्यासन्नता । धन्याः खलु ते जनाः से वन्ते ये निर्दुर्जनानि तपोवनानि । हा किमत्र कर्तव्यमिति । शोभनं भवति यदि स दीर्घायुर्न व्यापाद्यते । समध्यासितश्चिन्तापिशाचिकया, तथापि चालङ घनीयो देवादेशः' इति प्रवृत्त एतद्वयतिक रेण । अत्रान्तरे क्षुतं केनापि तोरण प्रदेशे । तमाकर्ण्य बिलम्बमानो भणि तः, सिद्धादेशनैमित्तिकेन-भद्र विनयन्धर ! मा विलम्बस्व, अतः सौम्या नाम सप्तम्येषा क्षुत् (ठिक्का) आरोग्यफलाऽनन्तरापूर्वार्थलाभोत्तरा च । तथा च भणितमिदमृषिभिः प्रतिषेधमयत्नं (यात्र)वा हानि वद्धि क्षयमसिद्धि वा। आरोग्यमर्थलाभं क्षते प्रदक्षिणदिक्ष ॥४४६। कि इस प्रकार के असम्बद्ध भाषण से क्या लाभ ?' सनत्कुमार द्वारा मुझसे अन्यथा (अनुचित) प्रार्थना करते हुए कुछ दिन बीत गये। मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। आज अपने हृदय की अभिलाषा पूर्ण न होने पर उसने स्वयं ही आकर इस प्रकार अपमान किया।' तब राजा कुपित हो गया। उसने कहा—'अरे विनयन्धर ! शीघ्र ही उस दुराचारी कुलकलंकी को मार डालो।' मैंने कहा- 'जो आजा महाराज !' राजा ने कहा-'तुम उस प्रकार से मार डालना जिसमें किसी को पता न चले ।' तब मैंने सोचा-ओह ! मैं कठिन कार्य में नियुक्त किया गया हैं। रजा के निकटवर्ती होने का यह फल होता है। वे मनुष्य धन्य हैं जो कि दुर्जनों से रहित तपोवन का सेवन करते हैं। हाय ! अब मैं क्या करूं? अच्छा हो, यदि वह दीर्घायु न मारा जाय । चिन्तारूपी पिशाची ने मुझे घेर लिया है, फिर भी महाराज की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है अतः इस सम्बन्ध में प्रवृत्त हो गया। इसी बीच किसी ने द्वार पर छींका। उसे सुनकर विलम्ब करते हुए मुझसे सिद्धादेश के अनुसार ज्योतिषी ने कहा'भद्र विनयन्धर ! विलम्ब मत करो, यह सातवीं छींक सौम्य है। बाद में आरोग्यरूप फल वाली और उत्तरवर्ती काल में अपूर्व अर्थ का लाभ कराने वाली होती है, जैसा कि ऋषियों ने कहा है दायी दिशा में छींक होने पर अयत्न का निषेध, हानि, वृद्धि, क्षय अथवा असिद्धि, आरोग्य और अर्धलाभ होता है ।।४४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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