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________________ ३६६ [ समराइच्चकहा जइ वच्चसि पावालं सरणं वा सुरवई पयत्तेणं । लंघेसि जलनिहि वा तहावि जीय' न पावेसि ॥४४८॥ कुलउत्तएण भणियं-भद्द, कि कयमणेणं। तेहि भणियं-परदव्यावहारेणं देवसासणाइक्कमो त्ति । कुलउत्तएण भणियं-भद्द, सरणागयपरिवज्जणं चोररक्खणं च दुवे विहु विरुद्धाणि; तहादि अमुणिऊण परमत्थं पडिवन्नं मए इमस्स सरणं । एवं च ठिए समाणे भद्दा पमाणं ति । तेहि भणियं -भो कुलउत्तय, जइ अम्हे पमाणं, ता समप्पेहि एयं पावकम्म, मा पवज्जेहि देवकोवाणलजालावलीए पयंगत्तणं-कुलउत्तएण भणियं-न ईइसो सप्पुरिसाण मग्गो, जं सरणागओ समप्पिज्जइ । तेहि भणियं । जइ एवं, परिरक्खेहि एयं; बला गेण्हामो त्ति । तेण भणियं-को मम पाणेसु धरतेसु एयं गेण्हइ त्ति । भणिऊण मग्गियं मंडलग्गं कुलउत्तएण, सन्नद्धो य से परिवारो। तओ रायपुरिसेहि 'मा णे अवराहियं भविस्सई' त्ति चितिऊण निवेइयं महारायस्स। भणियं च तेण-सासणाइक्कतं पि 'मे सरणागयं' ति रक्खइ; ता लहुं वावाएह त्ति । तओ समागयं अहिययरं नरिंदसाहणं, वेढिया यदि व्रजसि पातालं शरणं वा सुरपति प्रयत्नेन । लङ्घसे जलनिधि वा तथापि जावितं न प्राप्नोषि ।।४४८।। कुलपुत्रकेन भणितम्..-भद्र ! किं कृतमनेन ? तैर्भणितम्-परद्रव्यापहारेण देवशासनातिक्रम इति । कुलपुत्रकेन भणितम्-भद्र ! शरणागतपरिवर्जनं चौररक्षणं च द्वे अपि खलु विरुद्ध, तथाऽप्यज्ञात्वा परमार्थ प्रतिपन्नं मयाऽस्य शरणम् । एवं च स्थिते सति भद्राः प्रमाण मिति । तैर्भणितम्-भो कुलपुत्रक ! यदि वयं प्रमाणं ततः समर्पय एतं पापकर्माणम्, मा प्रपद्यस्व देवकोपानलज्वालावल्यां पतङ्गत्वम् । कुलपुत्रकेन भणितम्-न ईदृशः सत्पुरुषाणां मार्गो यच्छरणागतः समर्प्यते । तैर्भणितम्यद्येवं परिरक्ष एतम्, बलाद गृह्णीम इति । तेन भणितम् - को मम प्राणेषु धरत्सु एतं गृह्णातीति भणित्वा मार्गितं मण्डलाग्रं कुलपुत्रकेण, सन्नद्धश्च तस्य परिवारः । ततो राजपुरुष 'स्मिाकं अपराद्धं भविष्यति' इति चिन्तयित्वा निवेदितं महाराजाय। भणितं च तेन--शासनातिक्रान्तमपि मे शरणागतमिति रक्षति ततो लघु व्यापादयतेति । ततः समागतमधिकतरं नरेन्द्र साधनम्, वेष्टिता यदि इन्द्र के प्रताप से पाताल की शरण में जाते हो अथवा समुद्र को भी लांघते हो (पार करते हो) तो भी प्राणों को नहीं पाओगे अर्थात् तुम्हारे प्राण नहीं बचेंगे ।।४४८॥ कुलपुत्र ने कहा-'भद्र ! इसने क्या किया ?' उन्होंने कहा–'दूसरे के धन का अपहरण कर महाराज की आज्ञा का उल्लंघन किया है।' कुलपुत्र ने कहा--'भद्र ! शरणागत को छोड़ देना और चोर की रक्षा करन ये दोनों विरोधी हैं, फिर भी यथार्थ बात जाने बिना मैंने इसे शरण में ले लिया है। ऐसी स्थिति में भद्र प्रमाण हैं अर्यात आप जो चाहें सो करें ।' उन्होंने कहा-'हे कुलपुत्र ! यदि हमलोग प्रमाण हैं तो इस पापकर्म करने वाले को सौंप दो, महाराज के क्रोधरूपी अग्नि की ज्वाला के समूह में पतंगा मत बनो।' कुलपुत्र ने कहा--'यह सत्पुरुषों का मार्ग नहीं है (कि वे शरणागतों को सौंप दें।)' उन्होंने (राजपुरुषों ने ) कहा-'यदि ऐसा है तो इसकी रक्षा करो, (हम लोग) बलात् पकड़ेंगे।' उसने कहा--'मेरे प्राण धारण करते हुए कौन इसे पकड़ता है ?' ऐसा कहकर कुलपुत्र ने तलवार खींची, उसके साथी भी तैयार हो गये । तब राजपुरुषों ने 'हमारा अपराध न हो जाय' ऐसा सोचकर महाराज से निवेदन किया। महाराज ने कहा-'आज्ञा का उल्लंघन करने पर भी 'मेरा शरणागत है'-ऐसा कहकर रक्षा करता है। अतः शीघ्र ही मार डालो।' तब राजा की अत्यधिक सेना १. जीवं-क, 2. समणिअइ-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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