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________________ ३४४ [सनराइचकहा तीए अखंडियनियभुयपरक्कमो सूरतेओ नाम राया। जम्मि रणवासरेसुं विसालवंसम्मि वियडकडयम्मि। अत्थधरा हरसिहरे व्व सूरतेओ पडिप्फलिओ।४३८॥ तस्स य सयलंतेउरप्पहाणा रूवि व्व कुसुमचावरिणी लोलावई नाम भारिया। तस्य राइणो इमीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो।। ____ इओ य सो महासुक्कप्पवासी देवो अहाउयमणुवालिऊण तओ चुओ समाणो समुप्पन्नो लीलावईए कुच्छिंसि । दिट्ठो य तीए सुमिणयम्मि तोए चैव रयणीए पहायसमयम्मि संपुण्णमंडलो सयलजणमणाणंदयारी चंदिमापसाहिय भुवणभवणो मयलंछणो वयणेणमुयरं पविसमाणो ति। दिट्ठा य तं सुहविबुद्धाए सिट्ठो तीए जहाविहिं दइयस्स । हरिसवसुभिन्नपुलएणं भणिया य तेणंसुंदरि, सयलसामंतमियंको पुत्तो ते भविस्सइ। पडिस्सुयमिमीए। पतितुद्वा एसा। तिवग्गसंपायणसहमणहवंतीए पत्तो पसूइसमओ। सुहजोएणं च पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइओ निव्वइतस्यामखण्डितनिजभुजपराक्रमः सूरतेजा नाम राजा। यस्मिन् रणवासरेषु विशालवंशे विकटकटके। ____ अस्तधराधरशिखरे इव सूरतेजः प्रतिफलितम् ॥४३८।।। तस्य च सकलान्तःपुरप्रधाना रूपिणीव कुसुमचापगृहिणी लीलावती नाम भार्या । तस्य । राज्ञोऽनया सह विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः ।। इतश्च स महाशुक्रकल्पवासी देवो यथायुरनुपाल्य ततश्च्युतः सन् समुत्पन्नो लीलावत्याः कुक्षी दष्टश्च तया स्वप्ने तस्यामेव रजन्यां प्रभातसमये सम्पूर्णमण्डलः सकलजनमनआनन्दकारी चन्द्रिकाप्रसाधितभुवनभवनो मृगलाञ्छनो वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्टा च तं सुखबिबुद्धया शिष्टस्तया यथाविधि दयितस्य । हर्षवशोद्भिन्नपुलकेन भणिता च तेन-सुन्दरि! सकल सामन्तमृगाङ्क पुत्रस्ते भविष्यति । प्रतिश्रुतमनया । परितुष्टैषा। त्रिवर्गसम्पादनसुखमनुभवन्त्याः प्राप्तः प्रसूतिसमयः । शभयोगेन च प्रसूतैषा । जातस्तस्या दारकः । निवेदितो निर्वतिनामया राजदारिकया नरपतये। __ ऐसी उस नगरी में, जिसकी अपनी भुजाओं का पराक्रम खण्डित नहीं हुआ था, ऐसा सूरतेज नामक राजा था। विशाल वंश और भयंकर सैन्य समुदाय के सामने युद्ध के दिनों में पर्वत-शिखर पर अस्त होने वाले सूर्य के समान जिसका तेज प्रतिफलित होता था ॥४३८।। (ऐसे) उस राजा की समस्त अन्तःपुर में प्रधान, रूप में कामदेव की पत्नी रति के समान लीलावती नामक पत्नी थी। उस राजा का इस रानी) के साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर वह महाशुक्र स्वर्ग का निवासी देव आयु पूरी कर लीलावती के गर्भ में आया। उसने उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न में समस्त लोगों को आनन्द देने वालों, चांदनी से संसार रूपी भवन को प्रकाशित करने वाले चन्द्रमा को मुख से उदर में प्रवेश करते हुए देखा। उसे देखकर वह सुखपूर्वक जाग गयी । उसने विधिपूर्वक पति से निवेदन किया । हर्षवश जिसे रोमांच हो रहा था, ऐसे राजा ने कहा- "सुन्दरी ! समस्त सामन्तों में चन्द्रमा के समान तुम्हारा पुत्र होगा।" इसने स्वीकार किया और यह सन्तुष्ट हुई । धर्म, अर्थ और कामसुख का अनुभव करते हुए प्रसूति का समय आया । शुभयोग में इसने प्रसव किया । इसके पुत्र उत्पन्न हुआ। निर्वृति १. अत्थहरा''-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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