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________________ ३३० [समराइचकहा इएस' आहिडिऊण आरियदेसजम्मं; तत्थ विय चंडालडोबिलय रययचम्मयर साउणियमच्छबंधाइएसु आहिंडिउण” इक्खागाइसु कुलजम्म, तत्थ वि य काणकुण्टखुज्जपंगुलयमयंधवहिरवाहिरवाहिविगलिदियसरोरगेसु परिभमिऊण निरुवदुयं सरीरनिष्फति, तत्थ वि य डंडकससत्थरज्जुमाइएहिं जीविओवक्कहि अहाउयाणुहवणं, तत्थ विय कोहमाणमायालोहरागदोसंधयारमोहिओ धम्मबुद्धि, तत्थ वि य बहुविहेसु इंदियाणुकूलजणमणोरमेसु अन्नाणिपवत्तिएसु कुहम्मेसु परिन्भमंतो जहट्टियं सव्वन्नुभासियं सिद्धिसुहेक्ककुलहरं धम्म, तत्थ वि य अणाइभवपरंपरन्भत्थअसुहभावणाओ असंपत्तपुव्वं सिद्धिबहुपढमपाहुड सद्ध", तत्थ विय सपरोवयारयं महापुरिससेवियं एगंतपसंसणीयं चरणधम्म। संपत्तो य इमं देवाणुप्पिया, अचिरेणेव पावेइ जाइजरामरणरोयसोयविरहियं परमपयं ति। ता एयसंपायणे करेहि उज्जम, किमन्नेण संपाइएण । असासया सव्वसंजोया, पहवइ विणिज्जियसुरासुरो च चाण्डाल-डोम्बिलक-रजक-चर्मकार-शाकुनिक-मत्स्यबन्धादिकेष्वाहिण्ड्य, इक्ष्वाक्वादिष कुलजन्म, तत्रापि च काण-कुण्ट-कुब्ज-पङ गुलक-मूकान्ध-वधिर-व्याधि-विकलेन्द्रियशरीरकेषु परिभ्रम्य निरुपद्रतां शरीरनिष्पत्तिम्, तत्रापि च दण्ड-कशाशस्त्र-रज्ज्वादिभिर्जीवितोपक्रमयथाऽयुष्कानुभवनम्, तत्रापि च क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेषान्ध-कारमोहितो धर्मबुद्धिम्, तत्रापि च बहुविधेषु इन्द्रियानुकूलजनमनोरमेषु अज्ञानिप्रवर्तितेषु कधर्मेषु परिभ्रमन् यथास्थितं सर्वज्ञभाषितं सिद्धिसुखैक कुलगृहं धर्मम्, तत्रापि चानादिभवपरम्पराभ्यस्ताशुभभावनातोऽसम्प्राप्तपूर्व सिद्धिवधूप्रथमप्राभतं श्रद्धाम्, तत्रापि च स्वपरोपकारकं महापुरुषसेवितमेकान्तप्रशंसनीयं चरणधर्मम, संप्राप्तश्चेमं देवानप्रिय ! अचिरैणव प्रात्त्नोति जातिजरामरणरोग-शोकविरहितं परमपदमिति । तत् एतत्सम्पादने कुरूद्यमम्, किमन्येन सम्पादितेन। अशाश्वताः सर्वसंयोगाः प्रभवति, होम, धोबी, चमार, बहेलिया, मछुआ आदि जातियों में भ्रमणकर इक्ष्वाकु आदि कुलों में जन्म होता है । इक्ष्वाकु आदि कूल में भी काना, मोटा, कुबड़ा, लँगड़ा, गूगा, अन्धा, बहरा, रोगी और इन्द्रियहीन शरीरों में घूमकर उपद्रवरहित शरीर में आता है । उस में भी दण्ड, कोड़ा, शस्त्र, रस्सी आदि से जीवन बचाकर आयु का अनुभव करता है । उसमें भी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष रूपी अन्धकार से धर्मरूपी बुद्धि मोहित हो जाती है। उसमें भी अनेक प्रकार की इन्द्रियों के अनुकूल मनुष्यों के लिए मनोरम अज्ञानियों के द्वारा चलाये हुए कुधर्मों में परिभ्रमण कर यथास्थित सर्वज्ञभाषित धर्म प्राप्त होता है जो कि मोक्ष सुख का एकमात्र कुलगृह (पितगह) है। उसमें भी अनादिकालीन संसारपरम्परा के अभ्यास से अशुभ भावनाओं से युक्त होकर जिसे पहले प्राप्त नहीं किया है और जो मोक्षरूपी वधू के लिए प्रथम भेंट है ऐसी श्रद्धा को पाता है। उसमें भी अपना और दूसरे का उपकार करने वाला, महान् पुरुषों के द्वारा सेवित, एकान्त रूप से प्रशंसनीय चारित्र धर्म पाता है । चारित्रधर्म को पाकर हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से रहित उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को पा लेता है। अतः चारित्र के सम्पादन का उद्यम करो, अन्य कार्यों का सम्पादन करने से क्या लाभ है ? समस्त संयोग १. मुरुडोडोवाइएस आहिंडतस्स आरियदेसे जम्मो दुल्लहो होइ, आरिय जम्मम्मि पत्ते समाणे तत्थ विय-ख, 2. .."डोवलिय "-ख, ३. चम्मार"-ख, ४. हिडतस्स -ख, ५. इक्खागाइकुलेसु उप्पत्ती दुल्लहा णेया । इक्खागाइ कुलेसु पत्तं समाणे तत्य विय-ख, ६. विगलिदिएसु परिभमंति, निरुवद्दवसरीरनिप्पती दुल्लहा हवइ, निरुवद्दयसरीरनिप्पत्ति पत्तो समाणो तत्थ वि य-ख । ७. हवण हवइ, अहाउयंपि परिवालेंताणं तत्थ वि य - ख। ८. मोहियस्स धम्मबुद्धी दुल्लहा हवइ, समुप्पन्नाए वि धम्मबुद्धीए तत्थ बि य-ख । ९. लोगाण च पवत्तिएसु कुसत्थेसु संसच्छेई परिममंतो जहट्टियं ख। १०. धम्म न पाउशइ । तम्मि य पत्ते समाणे तत्थ वि य भतीवदुल्लहप्रणाइ० ख । ११. सद्धन पाउणइ । १2. सोगाइविरहिर्य ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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