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________________ ३२४ 1 समाइज्यका सद्दावे मे माइलोयं पहाणजणवयं च; जेण साहेमि तायरस संसारावसरकारणं ति । तओ रायमग्गासन्नाए महासहाए उवविठ्ठो राया सह मए । सद्दाविओ अम्मयाजणी पहाणजणवओ य, ठिओ उचियठाणे | भणियं च ताएण- पुत्त, किमेयं; साहेहि तं संसारविलसियं । मए भणियं - आयण्णलु ताओ, जहा मए अणुहू'ति । तओ पारद्धो कहेउ । ताय, निग्गुणो एस संसारो । मोहाभिभूया खु पाणिणो न नियंति एयस्स सरूवं, आलोचंति अणालोचियव्वाइं, पयट्टति अहिए, न पेच्छति आयहं । एत्थ खलु सुरासुरसाहारणा ताव एए जाइजरामरण रोय सोय पियविप्पओयाइया वियारा । दारुणो य विवाओ वस्स वि पमायचेद्वियस्स, जेण पिट्ठमयकुक्कुडवहो वि पेच्छ कहं परिणओत्ति ? भणिऊण साहिओ सुरिदत्त जम्माइओ जाइस्सरणपज्जवसाणो निययवृत्तंतो । तं च सोऊण : अहो दारुणविवागया अकऽजाय रणस्स' त्ति जपमाणो संवेगमुवगओ राया अंबाओ सेसजणवओ य । तओ मए भणियं - ताय, ईदिसं अकज्जायरणपरिणाम पेच्छिकण विरतं मे भवचारगाओ चित्तं वियंभिओ जिणवयणपडिवोहो । ता अणुजाणउ' ताओ, जेण तायप्पहावेणेव करेमि सफलं मणुयत्तणं ति । तओ तत एकस्मिन् देशे उपविशतु तातः, शब्दयतु मे मातलोकं प्रधानजनपदं च येन कथयामि तातस्य संसारावसरकारणमिति । ततो राजमार्गासन्नायां महासभायामुपविष्टो राजा सह मया । शब्दायितोऽम्बाजनः प्रधानजनपदरच स्थित उचितस्थानेषु । भणितं च तातेन - पुत्र ! किमेतत् कथय तत्संसारविलसितम् । मया भणितम् - आकर्णयतु तातः, यथा मयाग्नुभूतमिति । ततः प्रारब्धः कथयितुम् । तात | निर्गुण एष संसारः । मोहाभिभूताः खलु प्राणिनः, न पश्यन्ति एतस्य स्वरूपम् । 1 आलोचयन्ति अनालोचितव्यानि प्रवर्तन्तेऽहिते, न प्रक्षन्ते आयतिम् । अत्र खलु सुरासुरसाधारणास्तावदेते जातिजरामरण रोगशोकप्रिय विप्रयोगादयो विकाराः । दारुणश्च विपाकः स्तोकस्यापि प्रमादचेष्टितस्य येन पिष्टमयकुकुटवधोऽपि पश्य कथं परिणत इति भणित्वा कथितः सुरेन्द्रदत्तजन्मादिको जातिस्मरणपर्यवसानो निजवृत्तान्तः । तं च श्रुत्वा 'अहो दारुणविपाकता कार्याचरणस्य' इति जल्पत् संवेगमुपगतो राजा, अम्बाः शेषजनपदश्च । ततो मया भगितम् - तात ! ई दशम कार्याचरणपरिणामं प्रेक्षित्वा विरक्तं मे भवचारकाच्चित्तम्, विजृम्भितो जिनवचनप्रतिबोधः । ततोऽनुजानातु तातः येन तातप्रभावेणैव करोमि सफलं मनुजत्वमिति । ततोऽनादि सकती । अतः पिता जी, एक स्थान पर बैठ जाइए, मेरे प्रधान नागरिकों और माताओं को बुलाइए जिससे में पिताजी से संसार के अवसर का कारण कह सकूं।" अनन्तर राजमार्ग की समीपवर्ती महासभा में राजा मेरे साथ बैठा । माताओं और प्रधान नागरिकों को बुलवाया। ( सभी लोग ) योग्य 1 स्थानों पर बैठ गये । पिताजी ने कहा - 'पुत्र ! यह क्या है ? संसार के विलास के विषय में कहो ।" मैंने --- कहा- "जो मैंने अनुभव किया, उसे पिताजी सुनें ।" अनन्तर कहना प्रारम्भ किया - "पिताजी ! यह संसार निर्गुण है । मोह से अभिभूत प्राणी इसके स्वरूप को नहीं देखते हैं। अदर्शनीय वस्तु को देखते हैं, अहित में प्रवृत्त होते हैं, भावी फल को नहीं देखते हैं । इस संसार में जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग, शोक, प्रिय का वियोग आदि विकार सुर और असुरों के लिए साधारण हैं । थोड़ी-सी भी प्रसाद चेष्टा का परिणाम भयंकर होता है, जिससे आटे के मुर्गे का वध करने पर भी देखो क्या फल हुआ ?” – ऐसा कहकर सुरेन्द्रदत्त के जन्म से लेकर जातिस्मरण तक अपना वृत्तान्त कह सुनाया । उसे सुनकर - "ओह ! अकार्याचरण का फल भयंकर होता है" - ऐसा कहता हुआ राजा, माता जी और शेष नागरिक उद्विग्न हो गये। तब मैंने कहा - "पिता जी ! अकार्याचरण का इस प्रकार फल देखकर मेरा चित्त भवभ्रमण से विरक्त हो गया, जिनवचनों का ज्ञान बढ़ा । अतः पिताजी माझा दें जिससे पिताजी के प्रभाव से १. समणुभूयं - ख, २. परिकछेउ-ख ३. पमायविलसियस्स ख, ४. अणुजाचार - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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