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________________ ३५ सो गया। सबेरे सोकर उटा। वन के मध्य भाग में मैंने प्रशस्त रेखाओं से अलंकृत पैरों की पंक्ति को देखा। #पट-चिहों पर चल पड़ा। समीप में ही तपस्वि कन्या देखी । वनवास के वेश को छोड़कर उसका सब कुछ विलासवती के समान था । वह बिना कुछ कहे चली गयी । अनन्तर दूसरे दिन मुझे एक तापसी दिखाई दी। मेरे द्वारा सत्कार प्राप्त करने के बाद उसने कहा-- कुमार ! हम दोनों बैठे, तुम्हारे साथ कुछ बातचीत करना है । हम दोनों बैठ गये । इसके बाद उसने कहा इसी भारतवर्ष में वैताढय नामक पर्वत है। वहाँ गन्धसमृद्ध नाम का एक विद्याधर नगर है। वहां का राजा सहस्रबल था। उसकी पत्नी सुप्रभा थी। उन दोनों की मैं मदनमंजरी नाम की पत्री है। मेरा विवाह विलासपुर नगर के स्वामी विद्याधर राजा के पुत्र पवनगति से हुआ। एक बार हम दोनों नन्दनवन गये । अकस्मात् ही पवनगति की मृत्यु हो गयी। सिद्धायतनकूट को लाँघने के कारण मेरी विद्या नष्ट हो गयी। इसी बीच देवानन्द नाम का विद्याधर, जिसने तापस के व्रत ग्रहण किये थे, आया। उसने पिता जी से पूछकर मुझे तापस के योग्य दीक्षा दी। एक बार फूल और समिधा लाने के लिए जब समुद्रतट पर गयी तो समुद्र की लहरों से प्रेरित एक कन्या को लकड़ी के पटिये पर पड़ी देखा। उसे मैं अपने आश्रम में ले आयी। कुलपति के द्वारा इसका वृत्तान्त ज्ञात हुआ कि यह ताम्रलिप्ती के स्वामी ईशानचन्द्र की पुत्री है. पति-स्नेह के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुई है। अपने पति को मारा गया समझ, यह श्मशान में मरने के लिए गयी, किन्तु इसे चोरों ने छीनकर बर्बर देश के किनारे जाने वाले 'अचल' सार्थवाह के हाथों बेच दिया। उसका जहाज नष्ट हो गया । लकड़ी के टुकड़े के सहारे तैरती हुई वह तीन रात्रियों में इस तट और अवस्था को प्राप्त हुई। इसका पति मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है। यह वृत्तान्त सुन पति की याद में जीवनधारण कर रही है। एक बार उसने तुम्हें देखा, किन्तु घबड़ाहट के कारण बोली नहीं। बाद में उसने तुम्हें देखा, किन्तु तुम प्राप्त नहीं हुए। अतः वह गले में पाश डालकर मृत्यु के लिए तैयार हो गयी, किन्त मैंने उसे बचा लिया। अनन्तर वह तापसी राजकुमार को उस कन्या के पास ले गयी। दोनों का विवाह हआ। कुछ दिन बीत जाने के बाद सानुदेव व्यापारी के जहाज से, जो कि मलय देश जा रहा था, दोनों गये। सानुदेव विलासवती पर मोहित हो गया। उसने मुझे समुद्र में धक्का देकर गिरा दिया। मुझे पहले टूटे हुए जहाज का टमड़ा मिल गया और पाँच रात्रियों में समुद्र को पारकर मैं मलय के तट पर आ गया। किनारे पर जब मैं विलासवती को ढूंढने लगा तब पुण्योदय से मुझे विलासवती मिल गयी। विलासवती का जहाज भी नष्ट हो गया था, अतः वह लकड़ी के तख्ते के सहारे तैर कर किनारे आ गयी थी। एक बार विलासवती प्यास से अभिभूत हुई । मैं पानी लेकर आया तो मुझे विलासवती दिखाई नहीं दी। एक अजगर उसी समय नयनमोहन वस्त्र को निगलने में लगा था। उसे देखकर मैंने सोचा-विलासवती को इसने मार दिया है। तब शोक से अभिभूत हो मैं गिर पड़ा। चेतना प्राप्त होने पर मैंने अजगर पर पत्थरों से प्रहार किये ताकि वह मुझे भी न निगल ले । अजगर ने नयनमोहन वस्त्र उगल दिया। मैंने उसे ले लिया। मैंने उसी वस्त्र से फाँसी लगायी, किन्तु मैं मरा नहीं, मूच्छित हो गया । एक ऋषि ने जल का सिंचन कर मुझे चेतनायुक्त किया। उनने मेरा वृत्तान्त सुनकर सुझाव दिया कि मलयपर्वत पर मनोरथापूरक नाम का शिखर है, वहाँ से गिरने पर इष्ट वस्तु प्राप्त होती है। ऋषि के वचनों के अनुसार तीन दिन बाद मैं उस स्थान पर पहुँचा। वहां से मैं गिरने ही वाला था कि एक विद्याधर ने मुझे पकड़ लिया। मैंने अपना वृत्तान्त सुनाया। विद्याधर ने एक गृहपति और उसकी सिंहा नामक पत्नी की कहानी सुनायी जो परस्पर विरोधी संकल्प कर उस स्थान से मृत्यु को प्राप्त हुए थे। विद्याधर का कहना था कि परस्पर विरोधी विचार होने के कारण उन दोनों की इष्ट सिद्धि कभी नहीं हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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