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________________ घउत्यो भवो] २९७ तत्थ गब्भे' नरयकुंभीपागाइरेगवेयणं विसहमाणो असंपडिए चेव पसवकाले जाओ म्हि दुप्पवेसे वणे । अव्वोच्छिन्नछुहापीडियाए य पण8 मे जणणोए थणएसु खीरं । तओ अहं बभुक्खापरिमिलाणदेहो तत्थ परिभमंतो गोक्खुरयकंटए खाइउमाढत्तो। तओ समं पावेण वित्थारमुवगयं मे सरीरं । इओ य सो पुव्वयरजम्ममाइसुणओ अट्टज्माणमवगओ मरिऊण समुप्पन्नो इमम्मि चेव दुप्पवेसे वणे भुयंगमत्ताए त्ति। दिट्ठो य सो मए कालपासो व्व विदुममणिरत्तनयणो घणंधयारच्छवी ससिकलाकोडिधवलदाढो चलंतजमलजीहो जलासयसमीवे ददरं खायमाणो ति । तओ बुभुक्खापरिगएणं अवियारिऊण परिणइं गहिओ भए पुच्छदेसे । तेण वि य नयणसिहिसिहाजालाभासुरमवलोइऊण डक्को अहं वयणदेसे । एवं च अन्नाणकोहवसया दुवे वि अम्हे परोप्परं खाइउमारद्धा । एत्थंतरम्मि अदिट्टपुव्वेण गहिओ अहं तरच्छेण, पाडिओ महियले । तओ सो ममं खाइउं पयत्तो। किह ? चम्म चरचराए फालयंतो, छिराओ तडतडाए तोडयंतो सोणियं, ढग्गढग्गाए घोट्टयंतो, अटियाई कडकडाए मोडयंतो त्ति । अवि य तत्र गर्भ नरककुम्भीपाकातिरेकवेदनां विषहन असम्पतिते एव प्रसवकाले जातोऽस्मि दुष्प्रवेशे वने । अव्युच्छिन्नक्षुत्पीडितायाश्च प्रनष्टं मे जनन्याः स्तनेषु क्षीरम् । ततोऽहं बुभुक्षापरिम्लानदेहस्तत्र परिभ्रमन् गोक्षुरकण्टकाम् खादितुमारब्धः । ततः समं पापेन विस्तारमुपगतं मे शरीरम् । इतश्च स पूर्वतरजन्ममातृशुनक आर्तध्यानमुपगतो मृत्वा समुत्पन्नोऽस्मिन्नेव दुष्प्रवेशे वने भुजङ्गमतयेति । दृष्टश्च स मया कालपाश इव विद्रुममणिरक्तनयनो घनान्धकारच्छविः शशिकलाकोटिधवलदाढश्चलद्यमलजिह्वो जलाशयसमीपे दर्दु रं खादन्निति । ततो बुभुक्षापरिगतेन अविचार्य परिणतिं गृहीतो मया पुच्छदेशे। तेनापि च नयनशिखिशिखाजालभासुरमवलोक्य दष्टोऽहं वदनदेशे । एवं चाज्ञानक्रोधवशगौ द्वावपि आवां परस्परं खादितुमारब्धौ। अत्रान्तरेऽदृष्टपूर्वेण गृहीतोऽहं तरक्षेण, पातितो महीतले । ततः स मां खादितुं प्रवृत्तः । कथम् ? चर्म चरचरेति स्फाटयन, शिरास्त्रटत्त्रटदिति त्रोटयन , शोणितं ढग्ढगिति (घुटधुटि ति) पिवन्, अस्थीनि कट कटिति मोटयन्निति । अपि च गर्भ में कुम्भीपाक नरक से अधिक वेदना का अनुभव करते हुए प्रसव समय न आने पर भी मैं दुष्प्रवेश वन में उत्पन्न हो गया । निरन्तर भूख से पीड़ित होने के कारण मेरी माँ के स्तनों में दूध नहीं रहा । तब भूख से कुम्हालाये हुए शरीर वाले तथा वहाँ भ्रमण करते हुए मैंने गोखुर के कांटे खाना शुरू किये । अनन्तर पाप के साथ ही मेरा शरीर विस्तार को प्राप्त होने लगा। इधर वह पूर्वजन्म की माता जो कुत्ता हुई थी, मरकर इसी दुष्प्रवेश नामक वन में सांप हुई । मैंने उसे तालाब के पास मेंढक को खाते हुए देखा । वह साँप कालपाश के समान था। विद्रुममणि (मूंगा) के समान उसके लाल-लाल नेत्र थे, गहन अन्धकार के समान उसकी छवि थी और चन्द्रमा की उत्कृष्ट कला के समान सफेद दो दाढ़ों के बीच निर्मल उसकी जीभ चल रही थी । भूख से आक्रान्त होकर परिणाम को बिना विचारे मैंने उसकी पूंछ को पकड़ लिया। उसने भी अग्नि की लौ के समान चमकीले नेत्रों से देखकर मेरे मुंह पर डंस लिया। इस प्रकार अज्ञान और क्रोध के वश हम दोनों ने एक-दूसरे को खाना प्रारम्भ किया। इसी बीच जिसे पहिले नहीं देखा था, ऐसे लकड़बग्घे ने मुझे पकड़ लिया और पृथ्वी पर गिरा दिया। अनन्नर वह मुझे खाने लगा। कैसे ? चर-चर कर चमड़े को फाड़ते हुए, नसों को तड़तड़ तोड़ते हुए, खून को घुट-घट इस प्रकार पीते हुए (तथा) हड्डियों को कट-कट् इस प्रकार मोड़ते हुए (वह मुझे खाने लगा)। और भी १. गम्भाणलकुम्भी"-क. २. ढयख्याए-ख, ढगढग्गाए-ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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