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________________ २६२ [समराइच्चकहा याओ वि । कि मए कयाइ तुह पणयभंगो को ति? तओ चितियं देवीए- पव्वयंते नरवइम्मि, अपव्वयंतीए मए महंतो कलंगो, वावन्ने उण मंतिवयणओ अणणुमरंतीए वि बालरज्जपरिवालणनिमित्तं न तहाविहो त्ति । ता वावाएमि अज्ज केणइ पयारेण महारायं ति । चितिओ उवाओ। देमि से भोयणगयं चेव कहंचि चओरदिठ्ठि वंचिऊण अकालक्खेवघायणं विसं ति। अइक्कता काइ वेला। तओ संपत्ताए भोयणवेलाए उवविट्ठो अहं । वित्थरियं महया विच्छड्डेण भोयणं । महनासियं संछइऊण ढक्का भुंजावया । सद्दाविवा देवी, आगया य एसा। अलक्खिज्जमाणतालउडविससंजोइएण किलाहारपरिणामणसमत्थेणं अलियपउत्तेण जोगवडएण सह आगंतूण उवविट्ठा। एसा य भुत्ता सह मए । भुत्तावलाणे य आयमणवेलाए अवणीएसु चओरेसु पज्जंतभक्खणिज्ज आहारपरिणामणसमत्थं अगदव्वसंजुयं उवणीयं मे जोयवडयं, भक्खियं मए निवियप्पेणं। भुत्तावसाणे य कयसोयायारो गओ वासभवणं । एत्थंतरम्मि वियम्भिओ विसवियारो, सिमिसिमियं मे अंगेहि, जड्डयं गया जीहा, सामलीहूया कररुहा, पव्वायं वयणकमलं, निरुद्धो लोयणपसरो। तओ अहं तहाविहमणाचिक्खणीयजीवितादपि । किं मया कदाचित् तव प्रणयभङ्गः कृत इति ? ततश्चिन्तितं देव्या-प्रव्रजति नरपतौ अप्रव्रजन्त्यां मयि महान् कलङ्कः, व्यापन्ने पुनर्मन्त्रिवचनतोऽननुम्रियमाणाया अपि बालराज्यपरिपालननिमित्तं न तथाविध इति । ततो व्यापादयामि अद्य केनचित्प्रकारेण महाराजमिति। चिन्तित उपायः । ददामि तस्मै भोजनगतमेव कथञ्चित् चकोरदृष्टि वञ्चयित्वाऽकालक्षेपघातनं विषमिति । अतिक्रान्ता काचिद् वेला । ततः सम्प्राप्तायां भोजनवेलायामुपविष्टोऽहम् । विस्तृतं महता विछर्दैन (विस्तारेण) भोजनम् । मखनासिक सञ्छाद्य (ढुक्का) प्रवृत्ताः भोजकाः (भोजयितारः) । शब्दायिता देवी। आगता चैषा। अलक्ष्यमाणतालपुटविषसंयोजितेन किलाहारपरिणामनसमर्थेन अलीकप्रयुक्तेन योगवटकेन सहागत्योपविष्टा ; एषा च भुक्ता मया सह । भुक्तावसाने च आचमनवेलायामपनीतेषु चकोरेषु पर्यन्तभक्षणीयमाहारपरिणामनसमर्थमनेकद्रव्यसंयुतमुपनीतं मह्य योगवटकम् । भक्षितं मया निर्विकल्पेन । भुक्तावसाने च कृतशौचाचारो गतो वासभवनम् । अत्रान्तरे विजृम्भितो विषविकारः। सिमिसिमितं ममाङ्गः, जाड्यं गता जिह्वा, श्यामीभता कररुहाः, (पव्वायं) म्लानं वदनकमलम्, निरुद्धो लोचनप्रसरः । ततोऽहं तथाविधमनाख्येयमवस्थान्तरमनुभवन् निपतितः प्यारी हो। क्या मैंने कभी तुम्हारे प्रेम को अस्वीकार किया है ?" तब महारानी ने सोचा-दीक्षा लेनेवाला राजा यदि दीक्षा नहीं लेता है तो मुझ पर महान् कलंक लगेगा। (राजा के) मर जाने पर मैं मन्त्रियों के वचन के अनुसार सती नहीं होती हैं तो भी बालक के राज्य का परिपालन करने के कारण मुझे उतना दोष नहीं लगेगा। अतः आज किसी प्रकार महाराज को मार डालती हूँ। उपाय सोचा । भोजन के समय ही किसी प्रकार चकोर नामक पात्र को आँखों से ओझलकर, उसे धोखा देकर, असमय में मारकर विष डाल दंगी। कुछ समय बीत गया। भोजन का समय आने पर मैं (भोजन के लिए) बैठा। बड़े विस्तार से भोजन परोसा गया। मुंह, नाक वगैरह साफ कर भोजन करने वाले भोजन करने लगे। महारानी को बुलाया। यह आ गयी। जिसमें तालपुट नामक विष की मिलावट दिखाई नहीं दे रही थी और जो आहार को पचाने में समर्थ होने के बहाने प्रयुक्त किया गया था, ऐसे पकौड़ों को साथ लाकर बैठ गयी। इसने मेरे साथ खाया। भोजन करने के बाद पानी पीने के समय चकोर नामक पात्रों को हटा देने पर अन्त में खाये हए आहार को पचाने में समर्थ अनेक वस्तुओं के लिए पकौड़ों को मेरे लिए लाया गया। मैंने निर्विकल्प रूप से खा लिये। भोजन करने के बाद हाथ, मुंह धोकर शयनगृह (वासभवन) को गया। इसी बीच विष का विकार बढ़ गया । मेरे अंग सिमट गये, जीभ जड़ता को प्राप्त हो गयी, नाखून नीले हो गये, मुखकमल मुरझा गया, नेत्रों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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