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________________ घउत्यो भयो] २७१ हत्यहिं गद्दब्भसद्दरवावरियदिसायक्केहि इओ तओ तुरियमवधावतेहिं गहिओ रायपुरिसेहि । अओ परमवगओ चेव ते मदीओ वुत्तंतो। संपइ तुमं पमाणं ति भणिऊण तुहिक्को ठिओ परिव्वायगो त्ति। मंतिणा भणियं--भयवं, कहं पुण एत्थ एगदिवसावणीओ रायालंकारो नत्थि? तेण भणियं-दिन्नो ख एसो मए सावत्थीनरवइस्स। मंतिणा भणियं--'कि निमित्तं' ति? तेण भणियं-सुण। अत्थि मे सावत्थीनिवासी गंधव्वदत्तो नाम वयंसओ जीवियाओ य अब्भहिओ । तेण तन्नगरनिवासिणो इंददत्ताभिहाणस्त सेट्टिमहंतगस्स धूया वासवदत्ता नाम कन्नगा नेहाणरायवसओ अन्नदिन्ना वि पत्थए विवाहमहसवे जोव्वणाभिमाणिणा हुहरहा वि अत्तणो विणासमालोचिय अवलंबिऊण पुरिसयारं अवहरिऊण परिणीय त्ति । एयवइयरम्मि रुट्ठो से राया। अवहरिया वासवदत्ता। निच्छूढो नयरीओ। आगओ मे समीवं जीवियाभिहाणवयंसगसहाओ । ज्याषताग्रहस्तैर्गर्दभ(कर्कश) शब्दरवापूरितदिक्चक्र पूरितस्ततस्त्वरितमवधावद्भिगृहीतो राजपुरुषैः अतः परमगत एव त्वया मदीयो वृत्तान्तः । सम्प्रति त्वं प्रमाण मिति भणित्वा तूष्णिकः स्थितः परिव्राजक इति । मन्त्रिणा भणितम्-भगवन् ! कथं पुनरत्र एकदिवसापनीतो राजालङ्कारो नास्ति ? तेन भणितम् -दत्तः खल्वेष मया श्रावस्तीनरपतये । मन्त्रिणा भणितम्-'किं निमित्तम्'-इति ? तेन भणितम्-शृणु। अस्ति मे श्रावस्ती निवासी गन्धर्वदत्तो नाम वयस्यो जीविताच्चाभ्यधिकः । तेन तन्नगरनिवासिन इन्द्रदत्ताभिधानस्य श्रेष्ठिमहत्कस्य दुहिता वासवदत्ता नाम कन्यका स्नेहानुरागवशतोऽन्यदत्ताऽपि प्रस्तुते विवाहमहोत्सवे यौवनाभिमानिना इतरथाऽपि आत्मनो विनाशमालोच्य, अवलम्ब्यपुरुषकारमपहृत्य परिणोतेति । एतत्व्यतिकरे रुष्टस्तस्मै राजा। अपहृता वासवदत्ता। निःक्षिप्तो नगर्याः । आगतो मम समोपं जीविकाभिधानवयस्यसहायः। पष्टश्चागमनप्रयोजनम् । कथितं विद्या के कारण आकाश रूपी आंगन में जो गमन होता था वह रुक गया था, स्मरण की जाती हई विद्या के नष्ट हो जाने से मैं दीनता को प्राप्त हो गया था और प्रचण्ड भय के कारण दौड रहा था। अतएव मेरा वत्ता तुमने यथार्थ रूप से जान लिया है। इस समय तुम प्रमाण हो अर्थात् जो चाहो, करो---ऐसा कहकर परिव्राजक चुप हो गया। मन्त्री ने कहा-"भगवन् ! यहाँ पर एक दिन हरण किया हआ वह राजा का अलंकार क्यों नहीं है ?" उसने कहा--. "मैंने इसे श्रावस्ती के राजा को दे दिया था।" मन्त्री ने पूछा-"किसलिए?" उसने कहा -- "सुनो ! श्रावस्ती का निवासी गन्धर्वदत्त नाम का मेरा एक मित्र है जो कि मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। उसने स्नेहानुरागवश उस नगर के निवासी इन्द्रदत्त नामक बड़े सेठ की वासवदत्ता नामक कन्या को यौवन के अभिमान से दूसरी तरह भी अपना विनाश विचार कर पौरुष का सहारा ले अपहरण कर विवाह कर लिया। वह कन्या दूसरे को दी जा रही थी और उसका विवाह-महोत्सव होने जा रहा था । इस घटना से राजा उस पर रुष्ट हो गया । हरण की हुई वासवदत्ता को उसने नगर में भेज दिया। मेरे पास जीवक नाम का सहायक मित्र For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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