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________________ चउत्थो भवो] २५७ ता किन्निवासिणं किन्नामधेयं वा भवंतमवगच्छामि ? तओ 'परसंतिया रयणावली, तहावि गहिया, अहो मे सुकुलजम्मोत्ति सरिऊण विम्क्कदीहनीस संलज्जावणयवयणेण भणियं धणेणं-देव, कोइसो अकज्जयारिणो वक्साओ, को वा एत्थ दोसो सुकुलस्स? कि न संभवंति लच्छिनिलएसु कमलेसु किमओ? वाणियओ अहयं जाइमेत्ते, न उण सोलेणं, सुसम्मनयरवासी धणाभिहाणो य । तओ राइणा 'अहो मे धन्नया, जं न एयं पुरिसरयणं दि गासियं' ति चितिऊण भणियं- कहं तए जारिसा अकज्जयारिणो हवंति ? ता कहेहि परमत्थं, कहं तुमए एसा रयणावली पाविय त्ति ? एत्थंतरम्भि य ससंभममवसप्पिऊण विन्नत्तं महाए डिहारीए। देव, एसा खुमणोरमाभिहाणा उज्जाणवालिया रायध्यावयणाओ वहणभंगेण विउत्त्परियणा देवं विन्नवेइ । जहा-देव, इओ गच्छंताणं अम्हाणं समुद्दमज्झम्मि तक्खणा चेव चंडमात्यपणोल्लियं इत्थियाहियए व्व गुज्झं फुट्ट जाणवत्तं ति। तओ य देवस्स पहावेणं तहाविहफलगलाभसंपाइयपाणवित्ती जीविया रायध्या विणयवई । संपत्ता य कहंचि नियभायधेएहि नयरिसबीवं । मेहवणसंठियाए पेसिया अहं, जहा किन्नामधेयं वा भवन्तमवगच्छामि ? ततः परसत्का रत्नावली, तथाऽपि गृहीता, अहो ! मे सुकुलजन्म', इति स्मृत्वा विमुक्त दीर्घनिःश्वासं लज्जाऽवनत वदनेन भणितं धनेन-देव ! कीदृशोऽकार्यकारिणो व्यवसायः; को वाऽत्र दोषः सुकुलस्य ? किं न सम्भवन्ति लक्ष्मीनिलयेषु कमलेष कृमयः । बाणिजकोऽहं जातिमात्रेण न पुनः शीलेन, सुशर्मनगरनिवासी धनाभिधानश्च । ततो राज्ञा 'अहो मे धन्यता, यन्नैतत पुरुषरत्नं विनाशितम्' इति चिन्तयित्वा भणितम्-कथं त्वया सदशा अकार्यकारिणो भवन्ति ? ततः कथय परमार्थम, कथं त्वयैषा रत्नावली प्राप्तेति? अत्रान्तरे च ससम्भ्रममुत्सर्प्य विज्ञप्तं महाप्रतीहार्या-देव!एषा खलु मनोरमाभिधाना उद्यानपालिका राजदुहितवचनाद् वहन भङ्गेन वियुक्तपरिजना देव विज्ञपयति । यथा -देव ! इतो गच्छता- . मस्माकं समुद्रमध्ये तत्क्षणादेव चण्डपवनप्रणोदितं स्त्रीहृदये इव गुह्य स्फुटितं यानपात्रमिति। ततश्च देवस्य प्रभावेन तथाविधफलकलाभसम्मादितप्राण वत्तिर्जाविता राजदुहिता विनयवती। सम्प्राप्ता च कथनि निजभागधेयैनंगरोसमीपम । मेघवनसंस्थितया प्रेषिताऽहम, यथा विज्ञपय एतं वत्तान्तं लिया। अब आप कहाँ के रहने वाले हैं और क्या नाम है-यह जानना चाहता है। अनन्तर क्या नाम है---यह जानना चाहता हूँ। अनन्तर दूसरे की रत्नावली थी, उसे भी ग्रहण कर लिया, ओह ! मेरा अच्छे कुल में जन्म हुआ है-ऐसा स्मरण कर दीर्घ निःश्वास छोड़कर लज्जा से मुख नीचा किये हुए धन ने कहा-''महाराज ! कैसा कार्यकारी व्यवसाय है, इसमें अच्छे कुल का क्या दोष ? क्या लक्ष्मी के निवास कमल में कीड़े पैदा नहीं होते हैं ? मैं मात्र जन्म से व्यापारी (सार्थवाह) हूँ, शील से नहीं, सुशर्मनगर का निवासी हूँ और मेरा नाम धन है।" तब राजा ने, 'मैं धन्य हूँ जो कि ऐसे पुरुषरत्न को नहीं मारा' ऐसा सोचकर कहा-"आप जैसे लोग अकार्य के रने वाले कैसे हो सकते हैं ? अत: सही बात कहो; तुमने यह रत्नावली कैसे प्राप्त की ?" इसी बीच घबड़ाहट के साथ प्रवेश करती हई प्रतीहारी ने कहा---''महाराज ! यह मनोरमा नामकी उद्यानपालिका उद्यान की रखवाली करने वाली) जहाज टूट जाने के कारण सेवकों वगैरह से वियुक्त हुई राजपुत्री के कथनानुसार निवेदन करती है कि हे महाराज ! हम !ग जब यहाँ । जा रहे थे तो समुद्र के बीच उसी क्षण तीक्ष्ण वायु द्वारा प्रेरित, स्त्रियों के हृदय के समान गुह्य जहाज भी टूट गया। अनन्तर महाराज के प्रभाव से लकड़ी के टुकड़े को पाकर राजपुत्री विनयवती ने प्राण बचाये। किसी प्रकार अपने भाग्य से नगर के समीप पहुंच गयी है। मेघवन में ठहरी हुई उसने मुझे भेजा है कि इस वृत्तान्त को पिता जी से निवेदन करो। यह सुनकर महाराज जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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