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________________ तीए य नयरीए तीए चेव रयणीए राइणो वियारधवलस्स तक्करहिं मुटु भंडायार तन्निमित्तं घेप्पंति भयंगप्पाया नयरवासिणो अन्ने य कप्पडियादओ ति। निजंति मंतिपरओ मच्चंति य परिक्खिउं । तओ सोधणो एयमायण्णिऊण दुवारओ चेव अन्नओगच्छमाणो गहिओ निउत्तपरिसेहि, भणिओ य 'भद्द, कओ तुम' ति? तेण भणियं - 'सुसम्मनयराओं' । तेहि भणियं-- कहिं वच्चिहिसि ? तेण भणियं - अग्गओ गओ आसि, संपयं तं चेव वच्चिहामि ति। तेहि भणियं- भद्द, न तए कुप्पियव्वं ति; अज्ज खु राइणो वियारधवलस्स केहिचि मुटु भंडायारं तन्निमित्तं च कप्पडिया तुर्भेहि आणेयव्व' त्ति निउता अम्हे । ता एहि, वच्चामो मंतिगेहं ति। धणेण भणियं - भद्द, अहमियाणि चेवेहागओ, नाहं एयकम्मयारी । ता कि तहिं गएणं । तेहि भणियं-निद्देसगारिणो अम्हे, ता अवस्सं गंतव्वं ति । अणिच्छमाणो वि हियएण नीओ मंतिगेहं, दंसिओ मन्तिस्स, भणिओ य तेणं'भह कओ तुम?' तेणं तं चेव सिटू ति । मंतिता भणियं-कि ते पाहेयमनं वा? तओ तेण लोहअन्नाणमोहियमणेणं अवियारिऊणं आयइं भणियं निवियप्पेणं-'न किंचि संसणिज्जं ति । मंतिणा तस्यां च नगर्यां तस्यामेव रजन्यां राज्ञो विचारधवलस्य तस्करैमष्टं भाण्डागारम् । तन्निमित्तं गृह्यन्ते भुजङ्गप्राया नगरवासिनोऽन्ये च कार्पटिकादय इति । नीयन्ते च मन्त्रिपुरतो मुच्यन्ते च परीक्षितुम् । ततः स धन एवमाकर्ण्य द्वारत एवान्यतो गच्छन् गृहीतो नियुक्तपुरुषैः भणितश्च-भद्र! कुतस्त्वमिति । तेन भणितम्-'सुशर्मनगरात् । तैर्भणितम्-क्व वजिष्यसि ? तेन भणितम्-अग्रतो गत आसम्, साम्प्रतं तदेव व्रजिष्यामीति । तैर्भणितम्-न त्वया कुपितव्यमिति अद्य खलु राज्ञो विचारधवलस्य केनचिद् मष्टं भाण्डागारम् । तन्निमित्तं च 'कार्पटिका युष्माभिरानेतव्याः'-इति नियुक्ता वयम् । तत एहि, ब्रजामो मन्त्रिगहमिति। धनेन भणितम्-भद्र ! अहमिदानीमेवेहागतः, नाहमेतत्कर्मकारी, ततः किं तत्र गतेन ? तैर्भणितम् -निर्देशकारिणो वयम्, ततोऽवश्यं गन्तव्यमिति । अनिच्छन्नपि हृदयेन नीतो मन्त्रिगृहम्, शितो मन्त्रिणः, भणितश्च तेन–भद्र! कुतस्त्वम् ? तेन तदेव शिष्टमिति । मन्त्रिणा भणितम्-किं तव पाथेयमन्यद वा ? ततस्तेन लोभाज्ञान मोहितमनसाऽविचार्य आयति भणितं निर्विकल्पैन-'न किंचित् शंसनीयमिति।' मन्त्रिणा भणितम् -- 'स्फुटं मन्त्रयेः' । तेन उसी नगर में उसी रात राजा विचारधवल के भण्डार में चोरी हुई थी। इस कारण दुष्ट नगरनिवासी और दूसरे जालसाज आदि पकड़े जा रहे थे । मन्त्रियों के सामने उन्हें ले जाया जा रहा था और परीक्षा के लिए छोड़े जा रहे थे। धन यह सुनकर द्वार से दूसरी ओर जाता हुआ नियुक्त पुरुषों के द्वारा पकड़ लिया गया और(उससे) पूछा गया-'भद्र!तुम कहाँ से आये ?" उसने कहा- "सुशर्मनगर से ।" उन्होंने कहा"-कहाँ जाओगे ! उसने कहा - "आगे जा रहा था अब वहीं जाऊँगा।" उन्होंने कहा- "आप कुपित मत होना, आज राजा विचारधवल के भण्डार की किसी ने चोरी कर ली । उस कारण 'जालसाज लोगों को तुम ले आओ' इसके लिए हम लोग नियुक्त किये गये हैं । अतः आओ, मन्त्रिगृह की ओर चलें । धनने कहा-"भद्र! मैं इसी समय यहाँ आया हूँ, मैं इस प्रकार का कार्य नहीं करता हूँ, अतः मेरे वहाँ जाने से क्या लाभ ?" उन्होंने कहा- "हम लोग आज्ञा मानने वाले हैं अतः अवश्य ही जाना पड़ेगा। हृदय से न चाहता हुआ भी वह मन्त्रिगृह ले जाया गया । मन्त्री ने देखा और उससे पूछा-"भद्र ! तुम कहाँ से आये, उसने वही उत्तर दिया। मन्त्रीने कहा-"तुम्हारे पास नाश्ता या कुछ भी है ?" तब उसने लोभ और अज्ञान से युक्त मन वाला होकर, बिना भावी फल विचारे निर्विकल्प रूप से कहाऔर "कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए ।' मन्त्री ने कहा- "ठीक बोलते हो ?' उसने कहा-"आपसे भी झूठ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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