SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ [समराइचकहा विसण्णो । धराविओ तेण वोहित्थो । अन्नेसिऊण गोसे उच्चाइया नंगरा, पयट्टो सदुक्खं अहिप्पेयदेसाभिमुहो। इओ य सो सत्थवाहपुत्तो पदणसमणंतरमेव समासाइयपुवभिन्नवोहित्थफलगो सत्तरत्तेण समत्तरिऊण सायरं लवणजलासेवणविगयवाही संपत्तो तीरभायं। उत्तिण्णो सायराओ पुणो जायमिव अत्ताणयं मन्नमाणो उवविट्ठो तिमिरपायवसमोवे। चितियं च तेणं-अहो मायाबहुलया इत्थियावग्गस्स, अहो निसंसया धणसिरीए, अहो असरिसो ममोवरि वेराणुबंधो, अहो लहुइयं उभयकुलमिमीए। ता कि पुण से इमस्स ववसायस्स कारणं? अहवा अविवेयबहुले इत्थियायणे को कारणं पुच्छइ त्ति ? इत्थिया हि नाम निवासो दोसाणं, निमित्तं साहसाणं, उप्पत्तो कवडाणं, खेत्तं मसावायस्स, दुवारं असेयमग्गस्स, आययणमावयाणं, सोवाणं नरयाणं, अग्गला कुसलपुरपवेसस्स । ता किं इमिणा चितिएणं, कज्जं चितेमि । न एस कालो एयस्स आलोचियवस्स, अवि य उच्छाहस्स। 'उच्छाहममुंचमाणो पुरिसो अवस्सं चेव ववसायाणरूवं फलं पावेइ, न य अतोयवथुचिता दढ कायव' त्ति वुड्ढवाओ। थेवं चिमं पओयणं पुरिसस्स, गरुयं च जणणिजणया; ते य मे सुंदरा चेव त्ति बोहित्थः । अन्वेष्य प्रातरुत्याजिता नाङ्गराः, प्रवृत्तः सदुःखमभिप्रेतदेशाभिमुखः। इतश्च स सार्थवाहपुत्रः पतनसमनन्तरमेव समासादितपूर्वभिन्नबोहित्थफलकः सप्तरात्रेण समुत्तीर्य सागरं लवणजलासेवनविगतव्याधिः सम्प्राप्तस्तोरभागम् । उत्तीर्णः सागरात् पुनर्जातमिवात्मानं मन्यमान उपविष्टः तिामरपादपसमीपे। चिन्तितं च तेन–'अहो मायाबहुलता स्त्रीवर्गस्य, अहो ! नृशंसता धनश्रियः, अहो ! असदृशो ममोपरि वैरानुबन्धः, अहो ! लघु कृतमुभयकुलमनया। ततः किं पुनस्तस्या अस्य व्यवसायस्य कारणम् ? अथवा अविवेकबहुले स्त्रीजने कः कारणं पच्छति इति ? स्त्रो हि नाम निवासी दोषाणाम्, निमित्तं साहसानाम्, उत्पत्तिः कपटानाम्, क्षेत्रं मृषावादस्य, द्वारमश्रेयोमार्गस्य, आयतनमापदाम्, सोपानं नरकानाम्, अर्गला कुशलपुरप्रवेशस्य । ततः किमनेन चिन्तितेन ? कार्यं चिन्तयामि, न १ष काल एतस्यालोचितव्यस्य, अपि चोत्साहस्य । 'उत्साहममुञ्चन् पुरुषोऽवश्यमेव व्यवसायानुरूपं फलं प्राप्नोति, न चातीतवस्तुचिन्ता दृढं कर्तव्या' इति वृद्धवादः । स्तोकं चेदं प्रयोजनं पुरुषस्य, गुरुकं जननीजनको, तौ च मे सुन्दरी एव-इति चिन्तयित्वा सोचकर दुःखी हो गया। उसने जहाज रोक लिया। खोज करने के बाद लंगर खोलकर दुःखसहित इष्ट देश की ओर चल पड़ा। इधर वह वणिक पुत्र गिरने के बाद पहले से नष्ट हुए जहाज का एक टुकड़ा प्राप्तकर सातरात्रियों में समुद्र पार कर, खारे जल का सेवन करने से रोग रहित होकर किनारे पहुंच गया। समुद्र से पार होकर अपना पुनर्जन्म मानता हुआ वह घनी छायावाले वृक्ष के निकट जा बैठा। उसने सोचा-स्त्रियों की माया का आधिक्य पाश्चर्यजनक है , ओह ! धनश्री की दुष्टता । मेरे ऊपर (उसका) इतना वैर आश्चर्यकारक है । अरे ! इसने तो दोनों कुलों को नीचा कर दिया। उसके इस कार्य का कारण क्या होगा? अथवा अविवेक की जिनमें प्रधानता रहती है ऐसी स्त्रियों का कौन कारण पूछता है ? स्त्री दोषों का निवास है, साहसों का कारण है, कपटों की उत्पत्ति है, झूठ बोलने का क्षेत्र है, अकल्याणकारी मार्ग का द्वार है, आपत्तियों का घर है, नरकों की सीढ़ी है, पुण्यनगर में प्रवेश करने की आगल है। अतः इस विचार से क्या लाभ ? अर्थात् यह सोचना व्यर्थ है, इसके विषय में विचार करने का यह समय नहीं है । अपितु उत्साह का समय है। उत्साह को न छोड़ता हुआ पुरुष अवश्य ही कार्य के अनुरूप फल को प्राप्त करता है, बीती हुई वस्तु की चिन्ता अधिक नहीं करनी चाहिए-ऐसा वृद्ध लोग कहते हैं । पुरुष का यह प्रयोजन थोड़ा है, माता-पिता भारी (अत्यधिक माननीय) हैं, वे दोनों मेरे लिए सुन्दर ही है-ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy