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________________ पात्यो भयो] २४१ मे परियणो, विसण्णा धणसिरी, पव्वायवयणो य नंदओ। तां कि इमम्मि चेव रयणायरे वावाएमि अप्पाणयं ति । अहवा न एवमेएसि सुहं होइ, अवि य अहिययरं दुहं ति । न य अकयपडियारस्स इमं कापुरिसचेट्ठियं जुज्जइ। भणियं च अंबाए 'अविसाइणा होयव्वं' ति । पच्चासन्नं च जहासमोहियं अवरकूलं । ता इमं ताव एत्थ पत्तकालं, नंदयं चेव भंडसामित्तणे निउंजामि । विचित्ताणि खु विहिणो विलसियाणि । को जाणइ, कि भविस्सइ त्ति? एसो य ताव तायसुकयं मम य भाइणेहं बहु मन्नमाणो एयं धणसिरि बंधवहत्थगयं करिस्सइ त्ति चितिऊण भणिओ य तेणं नंदओ धणसिरी य। वयंस नंदय, कंपपरिणइवसेण एसा मे अवत्था, पच्चासन्नं च जहिच्छियं अवरकलं, अणेगावायपीडियं च जीवियं सव्वसत्ताणं चेव विसेसओ वाहिपीडियसरीराणं अम्हारिसाणं ति । अहिछेहि इमं रित्थं, तुमं चेव एत्थ नायगो, समुत्तिण्णस्स य मे भयवंतं जलनिहिं पच्छन्नस्सेव जहोचियं उवक्कमकरेज्जासि । तओ जइ मे रोगावगमो भविस्सइ, तओ सुंदरं चैव; अन्नहा उ तायसुकयं बहुमन्नमाणेण ममं च भाउयसिणेहं पावियव्वा तए बंधवाणं एसा भत्तारवच्छला धणसिरी। सुंदरि, तए वि य इमो मोत्तूण पावं अहं विय दट्टव्वो, न खंडियव्वं इमस्स वयणं। एत्थंतरम्मि सदुक्खं चेव परुन्नो नंदओ धनश्री:, म्लानवदनश्च नन्दकः । ततः किमस्मिन्नेव रत्नाकरे व्यापादयाम्यात्मानमिति। अथवा न एवमेतेषां सुखं भवति, अपि च अधिकतरं दुःखमिति । न चाकृतप्रतिकारस्येदं कापुरुषचेष्टितं युज्यते। भणितं चाम्बया 'अविषादिना भवितव्यम्' इति। प्रत्यासन्नं च यथासमीहितमपरकुलम् । तत इदं तावदत्र प्राप्तकालम्, नन्दकमेव भाण्डस्वामित्वे नियुनज्मि । विचित्राणि खलु विधेविलसितानि । को जानाति किं भविष्यतीति? एष च तावत् तातसुकृतं मम च भ्रातृस्नेहं बहु मन्यमानं एतां धनश्रियं बान्धवहस्तगतां करिष्यतीति चिन्तयित्वा भणितश्च तेन नन्दको धनश्रीश्च । वयस्य नन्दक ! कर्मपरिणतिवशेन एषा मेऽवस्था, प्रत्यासन्नं च यथेष्टमपरकुलम्, अनेकापायपीडितं च जीवितं सर्वसत्त्वानामेव, विशेषतो व्याधिगीडितशरीराणामस्मादशामिति । ततोऽधितिष्ठ इदं रिक्थम्, त्वमेवात्र नायकः, समुत्तीर्णस्य च मे भगवन्तं जलनिधिं प्रच्छन्नस्यैव यथोचितमपक्रम कुर्याः । ततो यदि मे रोगापगमो भविष्यति ततः सुन्दरमेव, अन्यथा तु तातसुकृतं बह मन्यमानेन मम च भ्रातृस्नेहं प्रापयितव्या त्वया बान्धवानामेषा भर्तृवत्सला धनश्रीः। सुन्दरि ! त्वयाऽपि चायं मुक्त्वा पापं अहमिव द्रष्टव्यः, न खण्डितव्यमस्य वचनम् । अत्रान्तरे सदुःखमेव प्ररुदितो नन्दकः, धनश्रीश्च घबड़ा रहे हैं, धनश्री दुःखी है और नन्दक का मुंह फीका हो रहा है । अतः क्या इसी समुद्र में अपने को मार डालूं ? अथवा इन लोगों को इस प्रकार सुख नहीं होगा अपितु और अधिक दुःख होगा और इस रोग का प्रतिकार न करने की कायर पुरुषों की चेष्टा ठीक नहीं है। माता ने कहा था-विषाद रहित रहना । यथेष्ट परलोक समीपवर्ती है । मृत्यु का समय उपस्थित हो गया है, अतः नन्दक को ही माल का स्वामी नियुक्त करता हूँ। भाग्य की लीलाएँ विचित्र होती हैं। कौन जानता है, क्या होगा ? यह पिता के द्वारा किये गये सत्कर्म का और मेरे भ्रातृस्नेह का सम्मानकर इस धनश्री को बन्धु-बान्धवों को सौंपा देगा-ऐसा सोचकर उसने नन्दक और धनश्री से कहा-"मित्र नन्दक ! कर्मों के फलवश मेरी यह अवस्था है और परलोक निकट है। सभी प्राणियों का जीवन अनेक दुःखों से पीड़त है । विशेषकर मुझ जैसे रोग से पीड़ित शरीर वालों का । अत: इस सम्पत्ति के स्वामी होओ। तुम्ही इसके नायक हो, भगवान् समुद्र को पार करने पर गुप्त रूप से मेरे योग्य कार्य को करना । यदि मेरा रोग दूर हो जाता है तो सुन्दर ही है, नहीं तो पिता के स्नेह का सत्कार कर और मेरे प्रति भ्रातृ-स्नेह रखकर इस पतिभक्त धनश्री को बान्धवों तक पहुंचा देना । सुन्दरी, तुम भी पाप को छोड़कर इसे मेरी ही तरह मानना, इसकी आज्ञा का उलंघन मत करना।" इसी बीच दुख सहित नन्दक रोने लगा और धनश्री छल से रोने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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