SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० [समराइच्चकहा बहुजणाणहिमयं चेट्ठियं, पडिवन्नो अहं पुरिसगुणेहि- विमुक्को अलच्छोए । ता कि बहुणा जंपिरणं । अवस्समहं अज्जप्पभावेणेव अज्जस्स उवएसपरिस्सम सफलं करेऊण अज्जं पेक्खामि त्ति भणिऊण निग्गओ गेहाओ नयरीओ य । तओ य 'किं करेमि, कि लंघेमि दविणजायनिमित्तं भगवंतं जलनिहिं । अत्थरहिओ खु पुरिसो अपुरिसो चेव । दरिद्दस्स हि न वित्थिरइ जसो; न वियंभए वित्ती, न सज्जणेण संगमो, न परोवयारसंपायणं ति। अहवां अयंडमणोरहभंगुरेसु विजियसुरासुरेसु य सहरसुद्दामभमिरेसु कालदंडेसु किमणेणालोइएणं । दुल्लहं माणुसजम्मणं, ता अंगीकरोमि भयवंतं उभयलोयसुहावहं धम्मं । एवं च कए समाणे इमस्स वि सत्यवाहपुत्तस्स परमत्थओ उवगयं चेव हवई त्ति चितिऊण पवन्नो पिउवयंसयस्स जोगीसराभिहाणस्स कावालियस्स समीवे पव्वज्जं ति।। इओ य निवेइओ निययाहिप्पाओ धणेणं नंदयधणसिरीणं। भणिओ य तेहिं-- के अम्हे भवओ समोहियंतरायकरणस्स ? जं वो रोयइ, तमेव अणुचिट्ठउ अज्जो ति। तओ गहियं धणेण परतोरगामियं भंडं, गवेसावियं पवहणं । साम्प्रतं बुधजनानभिमतं चेष्टितम्, प्रतिपन्नोऽहं पुरुषगुणः, विमुक्तोऽलक्ष्म्या। ततः किं बहना जल्पितेन ? अवश्यमहमार्थप्रभावेणंव आर्यस्य उपदेशपरिश्रमं सफलं कृत्वा आर्य प्रेक्षे (प्रेमिष्ये) इति भणित्वा निर्गतो गेहाद् नगरोतश्च । ततश्च किं करोमि ? 'किं लङ्घ द्रव्यजातनिमित्तं भगवन्तं जलनिधिम्, अर्थरहितः खलु पुरुषोऽपुरुष एव, दरिद्रस्य हि न विस्तीर्यते यशः, न विज़म्भते कोतिः, न सज्जनेन संगमो न परोपकारसम्पादन मिति । अथवा अकाण्डमनोरथभगुरेषु विजितसुरासुरेषु च सहर्षमुद्दामभ्रमितृषु कालदण्डेषु किमनेनालोचितेन ? दुर्लभं मानुषजन्म, ततः अङ्गीकरोमि भगवन्तमुभयलोकसुखावह धर्मम् । एवं च कृते सति अस्यापि सार्थवाहपुत्रस्य परमार्थत उपकृतमेव भवति' इति चिन्तयित्वा प्रपन्नः पितृवयस्यस्य योगीश्वराभिधानस्य कापालिकस्य समोपे प्रव्रज्यामिति । इतश्च निवेदिता निजाभिप्रायो धनेन नन्दकधनश्रीभ्याम् । भणितश्च ताभ्याम्-के वयं भवतः समीहितान्त रायकरणस्य ? यत्तुभ्यं रोचते तदेव अनुतिष्ठतु आर्य इति । ततो गृहोतं धनेन परतोरगामिक भाण्डम्, गवेषितं प्रवहणमिति । द्वारा अमान्य कार्य छोड़ दिया, मैंने पुरुष के गुणों को प्राप्त किया है और मुझे निर्धनता ने छोड़ दिया है। अतः अधिक कहने से क्या? मैं अवश्य ही आपके प्रभाव से आपके उपदेश रूपी परिश्रम को सफल कर आपके दर्शन करूंगा।" ऐसा कहकर घर से और नगर से निकल गया। अनन्तर क्या करूँ ? क्या धन के लिए सागर पार करूँ; क्योंकि धनरहित पुरुष पुरुष ही नहीं है। दरिद्र (निर्धन) का न तो यश बढ़ता है, न कीर्ति बढ़ती है, न सज्जनों के साथ मेल होता है और न वह परोपकार कर सकता है अथवा असमय में मनोरथ को नष्ट करने वाले, सुर और असुरों को जीतने वाले, हर्षपूर्वक उत्कट रूप से भ्रमण करने वाले कालदण्ड के होने पर इस प्रकार के सोचने से क्या लाभ ? अथवा इस प्रकार सोचना व्यर्थ है । मनुष्य जन्म दुर्लभ है अतः दोनों लोकों में सुख देने वाले भगवद् धर्म को अंगीकार करता हूँ। ऐसा करने पर इस वणिकपुत्र का यथार्थरूप से उपकार होता है-ऐसा सोचकर पिता के मित्र योगीश्वर नामके कापालिक के समीप प्रवजित हो गया। इधर धन ने अपना अभिप्राय नन्दक और धनश्री से कहा । उन दोनों ने कहा-"आपके इष्टकार्य में विघ्न डालने वाले हम कौन हैं ? भार्य ! आपको जो अच्छा लगे, वही करें।" तब पार ले जाने वाले माल को धन ने लिया और जहाज खोजा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy