SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साइनो भवो] २२३ भोयणं ति । सिहिकुमारेण भणियं-- अंब ! एसो वि खु अणायारो चेव समणाणं, जमाहाकडं आहर्ड च भुंजए त्ति । कहिओ से विही । तओ तीए भणियं-जाय ! न अन्नहा मे हिययनिवुई होइ, अफलं च मन्नेमि असंपाइए इमम्मि जायस्स आगमणं । ता अवस्सं तए इमं कायव्वं ति भणिऊण निवडिया चलणेसु । तओ य उज्जयसहावओ 'पेच्छह, से धम्मसड्ढा जायसिणेहो य, ता मा से विपरिणामो भविस्सइ' त्ति, तओ गुरुलाघवमालोचिऊणं भणियं सिहिकुमारेण-अंब ! जं तुम भणसि ति । कि तु न तुमए पुणो वि साहुनिमित्तमारंभो कायवो । जालिणीए भणियं-जाय ! एवं जं तुम भणसि त्ति । सिहिकुमारेण भणियं-जइ एवं, तो देहि एयस्स साहुणो भोयणजायं, तओ भुजिस्सामि त्ति। जालिणीए भणियं-जाय ! दंसियं चेव तुमए माइवच्छलत्तणं, ता कि इमिणा, मम हत्थाओ भोत्तव्वं ति । सिहिकुमारेण भणियं-अंब ! एवं; आगच्छउ पारणगवेल ति। तओ आगया पारणगवेला। कुमारवयणवहुमाणओ उवविट्ठा साहुणो। दिन्नाणि तीए जहोचिएण विहिणा भायणाई। परिविट्ठो य सुसंभिओ कासारो। पभुत्ता य साहुणो। दिन्नो य भुत्तसेसकासारसंगओ चेव कुमारस्स तालपुड भणितम-अम्ब ! एषोऽपि खलु अनाचार एव श्रमणानाम् , यद् आधाकृतम्, आहृतं च भुज्यते इति । कथितस्तस्यै विधिः । ततस्तया भणितम्-जात ! न अन्यथा मम हृदयनिर्वतिर्भवति, अफलं च मन्ये असम्पादिते अस्मिन् जातस्य आगमनम् । ततोऽवश्यं त्वया इदं कर्तव्यमिति भणित्वा निपतिता चरणयोः । ततश्च ऋजु कस्वभावतः 'प्रेक्षध्वम्, तस्या धर्मश्रद्धा जातस्नेहश्च, ततो मा तस्या विपरिणामो भविष्यति' इति, ततो गुरुलाघवमालोच्य भणितं शिखिकुमारेण-अम्ब ! यत् त्वं भणसि इति । किन्तु न त्वया पुनरपि साधुनिमित्तमारम्भः कर्तव्यः । जालिन्या भणितम्-जात ! एवं यत् त्वं भणसि इति । शिखिकुमारेण भणितम्-यदि एवम्, ततो देहि एतस्य साधो जनजातम्, ततो भोक्ष्ये इति । जालिन्या भणितम् --जात ! दशितमेव त्वया मातृवात्सल्यम् । ततः किमनेन ? मम हस्ताद् भोक्तव्यमिति । शिखिकुमारेण भणितम्-अम्ब ! एवम्, आगच्छतु पारणकवेला इति। तत आगता पारणकवेला । कुमारवचनबहुमानत उपविष्टा साधवः । दत्तानि तया यथोचितेन विधिना भाजनानि। परिवेषितश्च सुसम्भृतः कंसारः । प्रभुक्ताश्च साधवः । दत्तश्च भुक्तशेषकंसार"माता !यह श्रमणों के लिए अनाचार ही है कि वे आधाकृत कर्म के दोष से युक्त अथवा अभिप्रायवश बनाये गये। या (अपने लिए)लाये हुए भोजन को ग्रहण करें।" उसे विधि बतलायी। तब उसने कहा-"पुत्र!मेरे हृदय को दूसरे प्रकार से शान्ति नहीं मिलती है, इस कार्य के बिना मैं पुत्र का आगमन निरर्थक मानती हैं। अतः तुम्हें अवश्य ही यह करना चाहिए।" ऐसा कहकर पैरों में गिर गयी। तब सरल स्वभावी होने के कारण माता की धर्म के प्रति श्रद्धा और पुत्र के प्रति स्नेह देखकर इसकी विपरीत परिणति न हो, इस प्रकार गुरुता और साधुता का विचारकर शिखिकुमार ने कहा-"माता ! जैसा आप कहें । किन्तु आप साधु के निमित्त पुनः इस प्रकार के कार्य को न करें।" जालिनी ने कहा-"पुत्र! जैसा कहते हो वैसा ही करूंगी।" शिखिकुमार ने कहा-"यदि ऐसा है तो इस साधु को भोजन दो, अनन्तर मैं खाऊँगा । जालिनी ने कहा-"पुत्र! तुमने मातृप्रेम दिखलाया ही है अतः इससे क्या ? मेरे हाथ से भोजन कीजिए।" शिखिकुमार ने कहा-"अच्छा, भोजन का समय आने दो।" तब भोजन का समय आया। कुमार के वचनों का सम्मान कर साधु बैठे। उसने यथोचितविधि से पात्र दिये । भली प्रकार भरे हुए कंसार को परोसा । साधुओं ने खाया। खाने से बचे हुए कंसार के साथ ही कुमार को तालपुट विष से युक्त लड्डू दे दिया और उसने खा लिया। साधुओं ने जल पिया और पात्र हटा दिये। इसी बीच विष ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy