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________________ - [ समराइच्चकहा रसायणं जुत्तं, न उण निक्खमणं ति । तहा जं च भणियं 'परलोयपच्चत्थिओ अणंगो' त्ति, एवं पिन सोहणं, जओ परलोओ चैव नत्थि, न य कोइ तओ आगंतूणमप्पाणयं दंसेइ । एवमवि य परिगप्पणे अइप्पसंगो त्ति । तहा जं च भणियं 'दारुणो विसयविवागो' त्ति, एवं पि न जुत्तिसंगयं; जओ आहारस्स वि विवागो दारुणो चेव, एवं च भोयणमवि परिच्चइअव्वं । न य 'हरिणा विज्जंति त्ति जवा चेव न वुप्पंति । [ जयट्टिई य एस त्ति ] न य उवायन्नुणो पुरिसस्स दारुणतं पि संभवइ । तहा जं च भणियं 'पहवइ य सया अणिवारियपसरो मच्चु'त्ति, एवं पि बालवयणमेत्तं जेण निक्खंतस्स वि एस अणिवारियप्पसरो चेव, तेण वि य समणेण पज्जंते मरियव्वं ति । न य 'पज्जंते मरियव्वं' ति मसाणे चेवावत्थाणमुववन्नं । न य संते वि परलोए दुक्खसेवणाओ सुहं, अवि य सुहसेवणाओ चेव । जओ जं चेव अम्भसिज्जइ, तस्सेव पगरिसो लोए दिट्ठो, न उण विवज्जओ त्ति । ता विरम एयाओ ववसाओ त्ति । सिहिकुमारेण भणियं - सव्वमिदमसंगयं । सुण । अहवा न जुत्तं भयवओ समक्खं मम जंपिउं । ता भयवं चैव एत्थ भणिस्सइति । तओ भयवया भणियं-भो महामाहण ! सुण । जं तए भणियं, भणितम् - "परलोकप्रत्यर्थिोऽनङ्गः' इति एतदपि न शोभनम्, यतः परलोक एव नास्ति, न च कोऽपि तत आगत्य आत्मानं दर्शयति । एवमपि च परिकल्पने अतिप्रसंग इति । तथा यच्च भणितम 'दारुणो विषयविपाकः' इति, एतदपि न युक्तिसंगतम, यत आहारस्यापि विपाको दारुण एवं, एवं च भोजनमपि परित्यक्तव्यम् । न च 'हरिणा विद्यन्ते इति यवा एव नोप्यन्ते ।' (जगत्स्थितिश्च एषा इति) न च उपायज्ञस्य पुरुषस्य दारुणत्वमपि सम्भवति । तथा यच्च भणितम् ' प्रभवति च सदा अनिवारितप्रसरो मृत्यु:' इति, एतदपि बालवचनमात्रम् ; येन निष्क्रान्तस्यापि एष अनिवारितप्रसर एव तेनाऽपि च श्रमणेन पर्यन्ते मर्तव्यमिति । न च ' पर्यन्ते मर्तव्यम्' इति श्मशाने एव अवस्थानमुपपन्नम् । न च सत्यपि परलोके दुःखसेवनातः सुखम् अपि च सुखसेवनादेव । यतो यदेव अभ्यस्यते, तस्यैव प्रकर्षो लोके दृष्टः, न पुनर्विपर्यय इति । ततो विरम एतस्माद् व्यवसायादिति । शिखिकुमारेण भणितम् - सर्वमिदमसंगतम् । शृणु । जल्पितुम् । ततो भगवान् एव अत्र भणिष्यति इति । ततो अथवा न युक्तं भगवतः समक्षं मम भगवता भणितम् - भो महाब्राह्मण ! है; क्योंकि परलोक ही नहीं है । कोई भी वहाँ से आकर अपने को प्रकट नहीं करता है । इस प्रकार की कल्पना में अतिप्रसंग दोष आता है तथा जो कहा गया कि 'विषयों का फल भयंकर होता है' यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि आहार का भी फल भयंकर होता है अतः भोजन भी त्याग देना चाहिए ? हरिणों के डर से कोई जौ को न बोये, ऐसा नहीं है । संसार की स्थिति ऐसी ही है । उपाय को जानने वाले पुरुष के लिए संसार दारुण नहीं हो सकता है तथा जो कहा गया कि सदा निवारण करने के अयोग्य मृत्यु समर्थ है, यह भी बालवचन के तुल्य है, क्योंकि घर छोड़ने पर भी इसके विस्तार को रोका नहीं जा सकता है, मुत्यु के द्वारा श्रमण भी मरण को प्राप्त होते हैं। यदि वे मरते न हों तो श्मशान में ही रहना ठीक है । परलोक हो भी तो भी के सेवन से सुख नहीं हो सकता, अपितु सुख के सेवन से ही सुख हो सकता है। जाय उसी का ही प्रकर्ष लोक में देखा जाता है, इसका विपर्यय नहीं देखा जाता है। छोड़ दो।" 'दुःख जिसका अभ्यास किया अतः इस निश्चय को शिखिकुमार ने कहा- "यह सब असंगत है -- सुनो । अथवा भगवान् के समक्ष कुछ अतः भगवान् ही इस विषय में कहेंगे ।" तब भगवान् ने कहा- "हे महाब्राह्मण ! सुनो, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only कहना ठीक नहीं है। तुमने कहा कि 'तुम www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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