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________________ १९६ [समराइच्चकहा दिक्खिज्जइ त्ति । सिहिकुमारेण भणियं-भयवं! अणुगिहीओ म्हि । अन्नं च-निक्खंतेण वि मए समयट्टिई चेव पालियव्वा । ता एवं हवउ ति। एवं च जाव मंतयंता चिट्ठति, ताव आगओ कहिंचि तप्पत्ति सोऊण अणेयलोयपरिगओ करेणुयारूढो इमस्स चेव जणओ बंभयत्तो त्ति। पणमिओ तेण भयवं विजयसिंहायरिओ। अहिणंदिओ भयवया धम्मलाहेण । उवविठ्ठो गरुपायमूले । पणमिऊण भणिओ सिहिकुमारेण-ताय ! संपाएहि अभग्गपणइपत्थणो मे एगं पत्थणं ति । बंभयत्तण भणियं-वच्छ ! भणसु । तुहायत्तमेव मे जीवियं । सिहिकुमारेण भणियं-ताय! विइयत्ततो चेव तुम ससारसहावस्स। दुल्लह खलु माणुसत्तण, अणिच्चा पियजणसमागमा, चचलाओ रिद्धीओ, कुसुमसारं जोव्वण, परलोयपच्चत्थिओ अणंगो, दारुणो विसयविवागो, पहवइ सया अणिवारियपसरो मच्चू । ता करेहि मे पसाय । एवमवसाणे इह जावलोए अणुन्नाओ तुमए वीयरायप्पणीयजइधम्मासेवणेण करेमि सफलं मणुयत्तणं । तओ सुयसि हेण बाहजलभरियलोयणेणं सगग्गयं भणिय बंभयत्तेण-पुत्त ! अयालो एस जइधम्मस्स। सिहिकुमारेण भणियं-ताय! मच्चुणो विय नत्थि अयालो जइधम्मस्स त्ति। दिनेषु ततो दीक्ष्यते इति । शिखिकुमारेण भणितम् --भगवन् ! अनुगहीतोऽस्मि । अन्यच्च--निष्कान्तेनापि मया समयस्थितिरेव पालयितव्या । तत एवं भवतु इति । एवं स यावद् मन्त्रयन्तौ तिष्ठतः, तावद् आगतः कुत्रचित् तत्प्रवृत्ति श्रुत्वा अनेकलोकपरिगतः करेणुकाऽऽरूढोऽस्यैव जनको ब्रह्मदत्त इति । प्रणतश्च तेन भगवान् विजयसिंहाचार्यः । अभिनन्दितो भगवता धर्मलाभेन । उपविष्टो गुरुपादमले। प्रणम्य भणितः शिखिकुमारेण-तात ! सम्पादय अभग्नप्रणयिप्रार्थनो मम एकां प्रार्थनामिति । ब्रह्मदत्तेन भणितम्-वत्स! भण । तवायत्तमम जीवितम् । शिखिकुमारेण भणितम्-तात ! विदितवृत्तान्त एव त्वं संसारस्वभावस्य । दुर्लभं खलु मनुष्यत्वम्, अनित्याः प्रियजनसमारामाः, चञ्चला ऋद्धयः, कुसुमसारं यौवनम्, परलोकप्रत्यथिकोऽनङ्गः, दारुणो विषयविपाकः, प्रभवति सदा अनिवारितप्रसरो मृत्युः । ततः कुरु मम प्रसादम् । एवमवसाने इह जीवलोके अनुज्ञातस्त्वया वीतरागप्रणीतयतिधर्माऽसेवनेन करोमि सफलं मनुजत्वम् । ततः सुतस्नेहेन वाष्पजलभृतलोचनेन सगद्गदं भणितं ब्रह्मदत्तेन--पुत्र ! अकाल एष यतिधर्मस्य । शिखिकुमारेण भणितम्-तात ! मृत्योरिव नास्ति अकालो यतिधर्मस्य इति । देते हैं ।" शिखिकुमार ने कहा-"भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ। दूसरी बात यह है कि निकले हुए भी मुझको शास्त्र की मर्यादा का पालन करना ही चाहिए । अतः यही हो।" इस प्रकार जब बातचीत करते हुए बैठे थे तब कहीं से इस बात को सुनकर अनेक लोगों के साथ हथिनी पर सवार हुए पिता ब्रह्मदत्त आ पहुँचे। उन्होंने विजयसिंह आचार्य को प्रणाम किया। भगवान ने धर्मलाभ के द्वारा (उनका) अभिनन्दन किया। वे गुरु के चरणों में बैठ गये । शिखिकुमार ने प्रणामकर कहा -"पिता जी ! याचकों की प्रार्थना को न टालने वाले आप मेरी एक प्रार्थना स्वीकर करें।" ब्रह्मदत्त ने कहा-"वत्स! कहो, मेरे प्राण तुम्हारे ही अधीन हैं ।" शिखिकुमार ने कहा-"पिता जी ! आप संसार के स्वभाव के वृत्तान्त को जानते ही हैं । मनुष्यपना दुर्लभ है, प्रियजनों के समागम अस्थिर हैं, ऋद्धियां चंचल हैं। यौवन फूलों के समान सार वाला है। काम परलोक का विरोधी है। विषयों का फल भयंकर है। जिसके प्रसार को रोका नहीं जा सकता, ऐसी मृत्यु सदैव समर्थ है । अत: मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। इस प्रकार की समाप्ति वाले इस संसार में आपकी अनुमति प्राप्त कर मैं वीतरागप्रणीत यतिधर्म का सेवन कर मनुष्यभव को सफल करूँगा।" अनन्तर पुत्रस्नेह से आँखों में आंसू भरकर ब्रह्मदत्त से गद्गद होकर कहा-"पुत्र ! यह यतिधर्म का समय नहीं है।" शिखिकुमार ने कहा-"पिता जी ! मृत्यु की तरह, यतिधर्म के लिए कोई अकाल (निश्चित समय) नहीं होता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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