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________________ भूमिका ] बड़ा पछतावा हुआ । उसने जाकर अग्निशर्मा से पुनः भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करने की प्रार्थना की। अग्निशर्मा ने स्वीकृति दे दी। दूसरी बार अग्निशर्मा भोजन के लिए आया तो समीपवर्ती राजा मानभंग के आक्रमण के कारण उसने राजा के परिचारक वगैरह को घबड़ाहट में पाया। राजा को भी अग्निशर्मा के आने की बात ध्यान में नहीं रही । अन्त में किसी से भी कोई सरकार न पाकर अग्निशर्मा पुनः लौट गया। राजा ने तीसरी बार पुनः भोजन हेतु अग्निशर्मा को निमन्त्रित किया। अग्निशर्मा महल पर आया। उस दिन राजा के पुत्र का जन्म हुआ था, अतः बधाई देने वालों का तांता लगा था। राजभवन खुशियों से झूम उठा था । किसी को भी अग्निशर्मा को भोजन देने की सुधि नहीं रही। अत: अग्नि शर्मा तपोवन वापस आ गया । उसका मन राजा के प्रति द्वेष से भर गया । उसकी परलोक की इच्छा नष्ट हो गयी, धर्म के प्रति श्रद्धा जाती रही। समस्त दुःखों की बीजभूत शत्रुता आ गयी तथा क्षुधा-वेदना ने उसे आकर्षित कर लिया । अज्ञान और क्रोध के कारण उस मूढ़ हृदय ने यह घोर निदान (संकल्प) किया कि चिरकाल तक किये हुए इस व्रतविशेष का यदि कोई फल हो तो इस राजा के वध के लिए ही मेरा प्रत्येक दूसरा जन्म हो। उधर राजा बहुत दुःखी हुआ। उसे अग्निशर्मा के समी। जाकर पुनः आग्रह करने का साहस नहीं हुआ। उसने सोमदेव पुरोहित को जानकारी के लिए भेजा। सोनदेव ने सब समाचार प्राप्त कर राजा को निवेदित कर दिया। राजा पुनः अपने अन्तःपुर और परिजनों के साथ तपोवन में आया। उसने कुलपति के दर्शन किये । कुलपति अग्निशर्मा के भावों का अनुमान लगा चुके थे अतः उन्होंने राजा को अग्निशर्मा का दर्शन न करने की सलाह दी। अत्यन्त पश्चाताप से दुःखी-हृदय राजा वसन्तपुर आया और उसने वसन्तपुर को छोड़ने का निश्चय कर लिया । वह पुनः क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आकर रहने लगा। क्षितिप्रतिष्ठित नगर में उसी दिन विजयनन नामक आचार्य आये। वे अशोकदत्त सेठ के द्वारा बनवाये हुए जिनायतन से मण्डित अशोकवन नामक उद्यान में ठहरे हुए थे। कल्याणक ने राजा को विजयसेन आचार्य के पधारने का समाचार कह सुनाया। राजा दूसरे दिन समस्त विघ्नों से निवृत होकर आचार्यश्री की वन्दना के लिए गया । जाकर वह सुखपूर्वक बैठा और आचार्य महाराज से निवेदन किया कि उन्होंने मुनिधर्म क्यों अंगीकार किया। प्रत्युत्तर में आचार्य ने निम्नलिखित कथा सुनायी विजयसेन-कथा-मैं गान्धारदेश के गान्धारपुर जनपद का निवासी हूँ। मेरे दूसरे हृदय के समान सोमवसु पुरोहित का पुत्र विभावसु मेरा मित्र था। ज्वर रोग से पीड़ित होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसी समय संयमानुसार विहार करते हुए वर्षावास के लिए चार साधु आये । वे नगर के समीप में ही महामहती नामक पर्वतीय गुफा में ठहर गये। समाचार प्राप्त कर मैं उनके दर्शन के लिए गया। हर्ष से प्रसन्न मुखकमल वाला होकर मैंने उनकी वन्दना की, अनन्तर उनसे धर्म मार्ग पूछा । मुनियों ने उपदेश दिया। प्रतिदिन उनकी सेवा करते हुए जब चार माह बीत गये, उनके गमन करने की अन्तिम रात्रि मैंने उन्हें केवलज्ञान से विभूषित पाया। उस समय आनन्द से उत्पन्न आँसुओं से मेरे नेत्र भर आये थे, रोमांच से अंग पुलकित हो रहा था, आश्चर्य से मेरे नेत्र विकसित हो गये थे। उस प्रकार की अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव कर वन्दना करके मैं उनके समक्ष बैठ गया। केवली ने कथा प्रस्तुत की । देव और मनुष्य अपने हृदय की इष्ट कथा पूछने लगे। तब मैंने भी भगवान् केवली से पूछा-यहाँ से कुछ समय पूर्व मेरा मित्र विभावसु मृत्यु को प्राप्त हो गया । अब वह कहाँ पर उत्पन्न हुआ होगा ? केवली ने कहा-'इसी गान्धारपुर में पुष्यदत्त नाम का धोबी है, उसकी मधुपिंगा नामक पालतू कुतिया है, उसके गर्भ में कुत्ते के रूप में उत्पन्न हुआ है । वह अत्यन्त कठोर रस्सी से बंधा हुआ, भूख से दुर्बल शरीर वाला, धोबिन के कुण्ड के पास, गधे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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