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________________ [समराइच्चकहा सुगहियतवपत्ययणा निविसिऊण नियमेण अप्पाणं । मरणं मग्गंति मणारहेहि धोरा धिइसहाया ॥२२१॥ जस्स मयस्सेगयरो सग्गो मोक्खो व होइ नियमेण । मरणं पि तस्स नरवर ! ऊसवभूयं मणूसस्स ॥२२२॥ अणवरयरोगभासुरवसणविसाणुगयदीहदाढस्स। कत्थ गओ वा मु-वइ कयंतकण्हाहिपोयस्स ॥२२३॥ न वि जद्धं न पलायं कयंतहस्थिम्मि अग्घइ भयं वा। न य से दीसइ हत्थो गेण्हइ य दढं अमोक्खो य ॥२२४॥ जह वा लुणाइ सासाइ कासओ परिणयाइ कालेण। इय भूयाई' कयंतो लुणाइ जायाई जायाइं ॥२२५॥ जइ ताव मच्चुपासा सच्छंदसुहं सुरेसु वियरंति। अच्चतमणोयारो नत्थ जरारोगवाहीणं ॥२२६।। सुगहीततपःपथ्यद ना निर्वेश्य नियमेनात्मानम् । मरणं मार्गयन्ति मनोरथै/रा धतिसहायाः ॥२२॥ यस्य मृतस्यैकतरः स्वर्गो मोक्षो वा भवति नियमेन । मरणमपि तस्य नरवर ! उत्सवभूतं मनुष्यस्य ।।२२२।। अनवरतरोगभासुरव्यसनविषानुगतदीर्घदा(ढात्)ढस्य । कुत्र गतो वा मुच्यते कृतान्तकृष्णाहिपो(तात्)तस्य ॥२२३॥ नापि युद्धं न प्रलाप कृतान्तहस्तिनि अर्घति भयं वा । न च तस्य दश्यते हस्तो गृह्णाति च दढममोक्षश्च ॥२२४॥ यथा वा लुनाति सत्यानि कर्षक: परिणतानि कालेन । इति भूतानि कृतान्तो लुनाति जातानि जातानि ॥२२५।। यदि तावन्मृत्युपाशाः स्वच्छन्द सुखं सुरेषु विचरन्ति । अत्यन्तमनवतारो यत्र जरारोगव्याधीनाम् ॥२२६।। जो तपरूप पथ्य को अच्छी तरह ग्रहण कर चुके हैं, नियमपूर्वक आत्मा को स्थिर बना लिया है ऐसे धीर एवं आत्मबली पुरुष स्वयं मृत्यु से भ्रान्त नहीं होते। जिस मृत व्यक्ति के एक ओर निश्चित रूप से स्वर्ग या मोक्ष होता है, हे नरश्रेष्ठ ! उसके लिए मरण भी उत्सव के तुल्य होता है । जिनकी दाढ़े निरन्तर पीड़ा देने वाले रोगों से उद्दीप्त हैं तथा जो विपत्ति रूपी विष से परिपूर्ण हैं ऐसे उमराज रूपी काले सांप के बच्चे से कोई मनुष्य कहाँ जाकर छूट सकता है ? कौन मुक्त हो सकता है ? यम रूपी हाथी के समक्ष युद्ध, प्रलाप और भय का कोई मूल्य नहीं है। उसका हाथ दिखाई नहीं देता है पर इतनी दृढ़ता से वह हाय किड़ लेता है कि उससे छुटकारा नहीं हो सकता। जैसे कृषक पकने पर धान्य को काट डालता है उसी प्रकार यराज उत्सन्न होने वाले प्राणियों को काटता जाता है। अथवा जैसे काश नामक रोगविशेष काल से परिणत वसों को काट डालता है उसी प्रकार जन्म लेने वाले प्राणियों को यम भी काटता है। जहाँ पर जरा, रोग और पाधियों का अवतरण नहीं है उन देवताओं में भी मृत्यु के पाश स्वच्छन्द और सुखपूर्वक घूमते हैं। १. भयाइ-च, 2. जायाइ-च, 3. वाहिणि च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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