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________________ वोमो भवो] १२३ अहोरत्तं निवसामो, ताव समागओ सवररायहाणीओ रयणपुरनिवासिणो नंदिवद्धणाभिहाणस्स सत्थवाहस्स संतओ रयणपुरगामी चेव सत्थो ति। उयगनिमित्तं च समागया पुरिसा गहिऊण लंबणा। दिट्ठाइं अम्हे इमेहि। निवेइयं सत्थवाहस्स । कर मंचियापओएणं समुत्तारावियाइं तेणं, पच्चभिन्नायाणि य । पुच्छ्यिाइं वुत्तंतं, साहिओ वित्थरेणं, विम्हिओ एसो, तओ पत्थियाई रयणउरं जाव अइक्कतेसु पंचसु पयाणएसु परिवहंते सत्थे रायवत्तणीओ नाइदूरदेसभाए दिट्ठो कंकालमेत्तसेसो वामपासावडियदविणजाओ केसरिणा दीहनिद्दावसमुवणीओ अणहगो त्ति। दविणोवलम्भेण पच्चभिन्नाओ अम्हेंहिं । तओ तं तहाविहविवागं पेच्छिऊण समुप्पन्नो मे विवेगो, खओवसममुवगयं चारित्तमोहणीयं । संजाओ सयलजीवलोयदुल्लहो चरणपरिणामो। तओ अहं तहाविहपवड्ढमाणपरिणामो चेव आगओ सनयरं। पवन्नो य जहाविहीए विजयबद्धणायरियसमोवे पव्वज्ज । अहाउयमणुवालिऊण विहिणा य मोत्तूण देह, उववानो सोलसरसागरोवमाऊ' वेमाणियत्ताए महासुक्ककप्पम्मि, इअरो वि य अणहगो सीहवावाइयसरीरो सत्तसागरोवमट्टिई बालुगप्पहाए नारगो त्ति । च यावदहोरात्रं निवसावः, तावत्समागतः शबरराजधानीतो रत्नपुरनिवासिनो नन्दिवर्द्धनाभिधानस्य सार्थवाहस्य सत्को रत्नपुरगाम्येव सार्थ इति । उदकनिमित्तं च समागता पुरुषाः गहीत्वा लम्बनान । दृष्टौ आवामेभिः । निवेदितं सार्थवाहस्य । कृतमञ्चिकाप्रयोगेण समुत्तारितौ तेन प्रत्यभिज्ञातौ च । पृष्टौ वृत्तान्तम्, कथितो विस्तरेण । विस्मित एषः, ततः प्रस्थितौ रत्नपूरं यावदतिक्रान्तेष पञ्चसु प्रयाणकेषु परिवहति सार्थे राजवर्तनीतो नातिदूरदेशभागे दृष्टः कङ्कालमात्रशेषो वामपाश्र्वापतितद्रविणजात: केसरिणा दीर्घनिद्रावशमुपनीतोऽनहक इति । द्रविणोपलम्भेन प्रत्यभिज्ञात आवाभ्याम् । ततस्तं तथाविधविपाकं प्रेक्ष्य समुत्पन्नो मे विवेकः क्षयोपशममपगतं चारित्रमोहनीयम्, संजातः सकलजीवलोकदुर्लभश्चरणपरिणामः । ततोऽहं तथाविधप्रवर्द्धमानपरिणाम एव आगतः स्वनगरम् । प्रपन्नश्च यथाविधि विजयवर्द्धनाचार्यसमीपे प्रव्रज्याम । यथाssयुष्कमनुपाल्य विधिना च मुक्त्वा देहम्, उपपन्नः षोडशसागरोपमायुर्वैमानिकतया महाशक्रकल्पे, इतरोऽपि चाणहक: सिंहव्यापादितशरीरः सप्तसागरोपमस्थिति लुकाप्रभायां नारक इति । ततोऽहं व्यतीत हुआ, तभी शबरों की राजधानी से रत्नपुर के निवासी नन्दिवर्धन नामक व्यापारी का रत्नपुर को जाने वाला काफिला आया । पानी के लिए रस्सी लेकर आये हुए इन लोगों नेहम दोनों को देखा । वणिकपति से निवेदन किया । खटिया का प्रयोग कर हम दोनों को उसने निकाला और पहिचान लिया । (उन्होंने) वृत्तान्त पूछा, (हम लोगों ने) विस्तार से कहा। वह आश्चर्य-चकित हुआ। तब हम दोनों ने रत्नपुर को प्रस्थान किया । जब रास्ते में पांच पड़ाव पार करके काफिला जा रहा था (तब) सड़क के पास ही कंकाल मात्र जिसका शेष रह गया था और जिसकी बायीं ओर धन पड़ा था ऐसे अनघक को देखा, जो कि सिंह के द्वारा दीर्घनिद्रा (मृत्यु) को प्राप्त हो गया था । धन की प्राप्ति से हम दोनों ने पहिचाना। तब उसके फल को उस प्रकार देखकर मुझे विवेक उत्पन्न हुआ, चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम हुआ, समस्त संसार के लिए दुर्लभ चरित्ररूप परिणाम उत्पन्न हुआ। तब मैं उसी प्रकार भावों के प्रकर्ष को प्राप्त हुआ अपने नगर को आया। विजयवर्द्धन नामक आचार्य के पास विधिपूर्वक दीक्षा ले ली। आयू पूरी कर विधिपूर्वक शरीर त्यागकर सोलह सागर की आयु वाले महशुक्र स्वर्ग में वैमानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ। दूसरा, अनघक भी सिंह के द्वारा मारा जाकर सात सागर की स्थिति वाला बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न १. सोलसागरोवमाऊ-च। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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