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________________ १२० [ समराइच्चकहा माहणेणं-सत्थवाहपुत्त ! मा संतप्प । पुणो वि एयम्मि चेव विसए सिरित्थलाभिहाणाओ सन्निवेसाओ एवं चेव सवरेहिं अवणीओ जणो आसि। सो निरवसेसो अखंडियचरित्तसव्वस्सो महया दविणजाएण मुक्को त्ति । तओ अहं एयवायण्णिऊण अइक्कतेसु कइवयदिणेसु सभूमिमुवगएसु सवरेसु अणहगदुइओ घेतूण सव्वसारं दविणजायं सुसणिद्धसंभियं च पाहेयं पयट्टो चंदकतावि मोक्खणनिमित्तं ति। इयो य तीए मम विओग विहुराए चारित्तखंडणासंकिणीए य कहिंचि सुण्णगामासन्नकूवयडावासियाए सवरवाहिणीए निसाचरमसमयम्मि, पवत्ते य पयाणगकोलाहले पेरंतरक्खणावावडेसु सवरसंघाएसु जी वयनिरवेक्खाए तम्मि चेवं जिण्णकूवम्मि पवाहिओ अप्पा । पडिया य जलमज्झे, न मया य जलप्पभावेणं । तओ तग्गयं चेव पडिकूवगमहिट्ठिऊण चिट्ठिउमारद्धा। किच्छपाणा य जीवियसेसेणं चेव जाव पाणे धारेइ, ताव पत्ता अम्हे तमुद्देसं । अणहगस्स वि य पुत्वभवनिमित्तओ तयत्थसंदरिसणओ य समुप्पन्नो ममोवरि वंचणापरिणामो। चितियं च णेणं--- 'कहमेसो वंचियव्वो' त्ति । तओ सो अणेयवियप्पसमाउलियहियओ अहं च सुद्धसहावो त्ति एवं पंचामो । पाहेयदविणवाहपुत्र ! मा सन्तप्यस्व । पुनरपि एतस्मिन्नेव विषये श्रीस्थलाभिधानात् सन्निवेशात् एवमेव शबरैरपनीतो जन आसीत् , स निरवशेषोऽखण्डितचारित्रसर्वस्वो महता द्रविणजातेन मुक्तं इति। ततोऽहं एतदाकार्ष्यातिक्रान्तेषु कतिपय दिनेषु स्वभूमिमुपगतेषु शबरेषु अणहकद्वितीयो गृहीत्वा सर्वसारं द्रविणजातं सुस्निग्धसम्भृतं च पाथेयं प्रवृत्तश्चन्द्रकान्ताविमोक्षणनिमित्तमिति ।। इतश्च तया मम वियोगविधुरया चारित्रखण्डनाऽऽशङ्किन्या च कथंचित्शन्यग्रामासन्नकपतटावासितायां शबरवाहिन्यां निशाचरमसमये, प्रवृत्ते च प्रयाणककोलाहले पर्यन्तरक्षणाव्यापृतेषु शबरसंघातेषु जोवितनिरपेक्षया तस्मिन्नेव जीर्णकूपे प्रवाहित आत्मा । पतिता च जलमध्ये; न मता च जलप्रभावेण । ततस्तद्गतमेव प्रतिकृपकमधिष्ठाय स्थातुमारब्धा। कृच्छ्रप्राणा च जीवितशेषेणैव यावत्प्राणान् धारयति, तावत्प्राप्तावावां तमुद्देशम् । अणहकस्यापि च पूर्वभवनिमित्ततः तदर्थसन्दर्शनतश्च समुत्पन्नो ममोपरि वञ्चनापरिणामः । चिन्तितं च तेन-'कथमेव वञ्चयितव्यः' इति । ततः सोऽनेकविकल्पसमाकुलितहृदयः, अहं च शुद्धस्वभाव इति एवं ब्रजावः । पाथेयद्रविण वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, "वणिक् पुत्र ! दुःखी मत हो। इसी देश के श्रीस्थल नामक सन्निवेश से एक बार और इसी प्रकार शबरों ने मनुष्यों का अपहरण कर लिया था, उन्हें सम्पूर्णतः चरित्र खण्डित किये बिना बहुत-सा धन लेकर छोड़ दिया था।" तब यह सुनकर मैं कुछ दिन बीत जाने पर अपनी भूमि में आये शबरों के पास अनघक को साथ लेकर बहुमूल्य धन और चिकनाई से भरे हुए नाश्ते को लेकर चन्द्रकान्ता को छुड़ाने के लिए गया। इधर उसने मेरे वियोग से पीड़ित होकर चरित्र के खण्डन की आशंका से, जब शबरवाहिनी ने किसी शून्य ग्राम के कुएँ के समीप रात्रि में डेरा डाला और प्रयाण (गमन) का कोलाहल होने पर जब शबरसेना सीमा की रक्षा में लगी हुई थी, तब, उसी जीर्णकूप में जीवन की आशा छोड़कर अपने आपको गिरा दिया। जल के मध्य में गिरी । किन्तु जल के प्रभाव से मरी नहीं। तब उसी कुएँ के अन्दर की खोल में रहने लगी। आयु शेष रह जाने के कारण वह बड़ी कठिनाई से प्राण धारण कर रही थी कि हम दोनों वहाँ पहुँच गये। अनघक के मन में पूर्वभव के निमित्त से और धन के देखने से मुझे ठगने का भाव हुआ। उसने सोचा- इसको कैसे ठगा जाय। उसका हृदय अनेक विकल्पों से आकुलित था और मैं शुद्धस्वभाव था, इस प्रकार हम लोग जा रहे थे। नाश्ता और धन प्रत्येक के हाथ में होता था। एक बार मेरे हाथ में नाश्ता था, . उसके हाथ में धन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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