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________________ वीओ भयो ] १०७ वियलियं संधीहि, उव्वत्तियं पिव' हियएणं, भमियं पिव पासायंतरेण', परिवत्तियं पिव पुहवीए, अवसा अहं निवडिया धरणिवट्ठ । अओ परमणाचिक्खणीयमवत्थंतरं पाविऊण पुवसम्मत्ताणुभावओ चइऊण देहं सोहम्मे कप्पे लीलावयंसए वरविमाणे पलिओवमट्ठिई देवत्ताए उववन्नो म्हि। तत्थ य पवरच्छरापरिगओ दिव्वे भोए उवभुंजामि जाव, रुद्ददेवो वि तं नागदत्तसत्थवाहधूयं परिणीय तीए सद्धि जहाणुरूवे भोए उवभुंजिऊण कालमासे कालं काऊण रयणप्पभाए पुढवीए खट्टक्खडाभिहाणे नरए पलिओवमाऊ चेव नारगो उववन्नो त्ति । तओ अहं अहाउयं अणुपालिऊण चुओ समाणो इहेव विजए सुंसुमारे रण्णे सुंसुमारगिरिम्मि हत्थित्ताए उववन्नो, संपत्तो य कलभगावत्थं । एत्थंतरम्मि य इयरो वि नरयाओ उव्वट्टिऊण तम्मि चेव गिरिवरे सुगपक्खित्ताए उववन्नो त्ति । अइक्कतो य सिसुभावं, विट्ठीय अहं तेण तम्मि चेव गिरिवरे सहावरमणीएसु नलवणेसु करेणुसंघायपरिगओ सलीलं परिभमंतो त्ति । तओ में दळूण पुत्वभवन्भासाओ उक्कडकम्मोदयाओ य समप्पन्नो ममोवरि वेरपरिणामो। चितियं च तेण-कहं पुण एस कुंजरो इमाओ भोगसुहाओ वंचिय मेऽङ्गः, विचलितं सन्धिभिः, उद्वतितमिव हृदयेन, भ्रान्तमिव प्रासादान्तरेण, परिवर्तितमिव पृथिव्या, अवशाऽहं निपतिता धरणीपृष्ठे । अतः परमनाख्येयमवस्थान्तरं प्राप्य पूर्वसम्यक्त्वानुभावतस्त्यक्त्वा देहं सौधर्म कल्पे लीलावतंसके वरविमाने पल्योपमस्थितिर्देवत्वेन उपपन्नोऽस्मि । तत्र च प्रवराप्सर परिगतो दिव्यान् भोगानुपभुजे यावद्, रुद्रदेवोऽपि तां नागदत्तसार्थवाहदुहितरं परिणीय तया साद्धं यथानुरूपान् भोगानुपभुज्य कालमासे कालं कृत्वा रत्नप्रभायां पृथिव्यां खट्टक्खडाभिधाने नरके पल्योपमायुरेव नारक उपपन्न इति । ततोऽहं यथायुष्कमनुपाल्य च्युतः सन् इहैव विजये सुंसुमारे अरण्ये सुंसुमारगिरौ हस्तित्वेनोपपन्नः, सम्प्राप्तश्च कलभकावस्थाम् । अत्रान्तरे च इतरोऽपि नरकादुद्वत्य तस्मिन्नेव गिरिवरे शुकपक्षित्वेनोपपन्न इति। अतिक्रान्तश्च शिशुभावं, दृष्टश्चाहं तेन तस्मिन्नेव गिरिवरे स्वभावरमणीयेषु न(ड)लवनेषु करेणुसंघातपरिगतः सलीलं परिभ्रमन्निति । ततो मां दृष्ट्वा पूर्वभवाभ्यासाद् उत्कटकर्मोदयाच्च समुत्पन्नो ममोपरि वैरपरिणामः। चिन्तितं च तेन-कथं पुनरेष कुञ्जरोऽस्माद् भोगसुखाद् वञ्च यतव्य इति । उपायान् गवेषयितुमारब्धः । जोड़ ढीले पड़ गये, हृदय मानो निकलने लगा, महल घूमने-सा लगा, पृथ्वी मानो उलट पड़ी और अवश होकर मैं पृथ्वी पर गिर पड़ी । (मेरा जीव) परम अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्त कर पूर्व सम्यक्त्व के प्रभाव से शरीर के लीलावतंसक उत्कृष्ट विमान में एक पल्य की आयुवाला देव हुआ । वहाँ पर श्रेष्ठ अप्सराओं से घिरा होकर दिव्य भोगों को भोगा। रुद्रदत्त भी उस नागदत्त व्यापारी की कन्या को विवाह कर उसके साथ अनुरूप भोगों को भोगकर समय आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर रत्नप्रभा पृथ्वी के खडक्खडा नामक नरक में एक पल्य की आयु वाला नारकी हुआ । तब मैं यथावत् आयु पूरी कर वहाँ से च्युत होकर इसी देश के सुंसुमार नामक जंगल में सुसुमार नामक पर्वत पर हाथी के रूप में पैदा होकर बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच वह दूसरा भो नरक से निकलकर उसी पर्वत पर तोते के रूप में पैदा हुआ। बाल्यावस्था बीत जाने पर उसी पर्वत पर स्वभाव से रमणीय नरकट वन में हथिनियों से घिरे होकर लीलापूर्वक घूमते हुए उसने मुझे देखा । तब मुझे देखकर पूर्वभव के अभ्यास वश उत्कट कर्मोदय से मेरे ऊपर (उसका) वैरभाव उत्पन्न हुआ। उसने सोचा-कैसे यह हाथी इस सुखभोग से वञ्चित हो । उसने उपाय खोजना प्रारम्भ कर दिया। एक १. चिय-क । २. रेहि-क। ३. सोहम्म कप्पे-च। ४. संपत्तो -ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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