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________________ [ समराइच्चकहा पोग्गलपक्खेवणं वा, तहा अप्पडिलेहियदप्पडिलेहियसेज्जासंथारदुरूहणं वा, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसेज्जासंथारदुरूहणं वा, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवणविगिचणयं वा, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणयं वा, तहा सचित्तनिक्खिवणयं वा, सचित्तपहिणयं वा कालाइक्कम वा, परववएसं वा, मच्छरियं वा, अन्ने य एवंजाइए गुणव्वयसिक्खावयाइयारे नायरइ। तओ णं से एमेयाणुरूवणं' कप्पेणं विहरिऊण तीसे कम्मट्टिईए परिणामविसेसेणं तम्मि वा जम्मे, अणेगेसु वा जम्मेसु संखेज्जसु सागरोवमेसु खविएसु सव्वविरइलक्खणं खमा-मद्दवऽज्जव-मुत्तीतव-संजम-सच्च-सोयाऽऽकिंचण-बंभचेररूवं जइधम्म पाउणइ । तओ एवं चेव उवसमसेढी एवं चेव खवगसेदित्ति । भणियं च---- सम्मत्तम्मि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होज्जा। चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होंति ॥१॥ एवं अप्पडिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं एगभवेणं च सव्वाइं ॥२॥ दुष्प्रतिलिखित-शय्यासंस्तार-दूरोहणं वा, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-शय्यासंस्तारदूरोहणं वा, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-उच्चारप्रस्रवणवित्यजनं वा, प्रौषधोपवासस्य सम्यग् अननुपालनकं वा तथा सचित्तनिक्षेपणकं वा, सचित्तपिधानकं वा, कालातिक्रमं वा, परव्यपदेशं वा, मात्सर्य वा, अन्यांश्च एवं जातिकान् गुणवत-शिक्षावतातिचारान् नाचरति ।। ततः स एवमेतदनुरूपेण कल्पेन विहृत्य तस्याः कर्मस्थितेः परिणामविशेषेण तस्मिन् वा जन्मनि, अनेकेषु वा जन्मसु सख्ये येषु सागरोपमेषु क्षपितेषु सर्वविरतिलक्षणं क्षमा-मार्दवार्जवमुक्तितपःसंयमशौचाऽऽकिञ्चन्यब्रह्मचर्यरूपं यतिधर्म प्राप्नोति । तत एवमेव उपशमश्रेणी एवमेव क्षपकश्रेणी इति । भणितं च सम्यक्त्वे तु लब्धे पल्यपृथक्त्वेन श्रावको भवेत् । चरणोपशमक्षयाणां सागरसंख्यान्तराणि भवन्ति ॥८१॥ एवम् अप्रतिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मस् । अन्यतरश्रेणिवर्जम् एकभवेन च सर्वाणि ।।८२॥ रूप दिखाकर इशारा करना, मर्यादा से बाहर कंकड़-पत्थर फेंककर संकेत करना, बिना देखे-भाले अथवा बिना साफ की हई शैया और बिस्तर पर चढ़ना, भूमि को बिना देखे-भाले अथवा बिना शोधे मलमूत्र का त्याग करना, प्रौषधोपवास का ठीक तरह से पालन न करना, सचित्त कमलपत्र आदि में रखा आहार देना, सचित्त पत्ते आदि से ढका आहार देना, योग्य सीमा का उल्लंघन कर असमय में देना, दूसरे दातार की वस्तु स्वयं दान में देना, आदरपूर्वक दान नहीं देना अथवा दूसरे दाता से ईर्ष्या करना तथा अन्य भी इस प्रकार के गुणव्रत और शिक्षाक्त के अतिचारों को नहीं करता है। अनन्तर वह इस प्रकार नियमानुसार आचरण करता हुआ कर्मस्थिति के परिणामविशेष से उसी जन्म में अथवा अनेक जन्मों में संख्येय सागरोपम काल बिताकर समस्त विरति लक्षणवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (त्याग), तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य रूप मुनिधर्म को पाता है। अनन्तर इसी प्रकार उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पाता है। कहा भी है सम्क्त्व प्राप्त होने पर पल्यपथक्त्व (दो से नौ पल्योपम के बीच) में श्रावक होता है। चरण, उपशम और क्षय के सागर संख्यान्तर होते हैं । इस प्रकार सम्यक्त्व अप्रतिपत्ति-अपतनशील रहे तो वह अनेक देव मनुष्य जन्मों में अथवा उपशम श्रेणी छोड़ क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो एक ही जन्म में सब कुछ साध लेता है॥८१-८२॥ १. इमेणाणुरूपेणं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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