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________________ ५२ [ समराइच्चकहा गीहिउं । दि यसो मए विसुयास प्रगहियतणुरुहो । कीडानियर संपाइयखयंकिओ, अइखीणसरीरो, ससंतचलीरजोहाकरालो, धवलविहाविज्ज माणदंसणवली, मंदमंदं परिसवक्कमाणो नाइओ चेल सुणओत्ति । जाओ य मे तं तहाविहं दट्ठूण महंतो संवेगो । चितियं च मएअहो ! दारुणो संसारवासो । एवंविहावसाणाणि एत्थ जीवाणं पेम्मविलसियाइ । एत्थं तरम्मिच पत्ता मम समीवं सह तेण ते पुरिसा । नवेइओ तेहि - 'देव ! एस सो सुणओ' त्ति । तओ सो मं दट्ठूण पयलंतदीहलंगुलो, वाहजलभरियलोयणो, उग्गीवमवयालियाणणो किंपि तहाविहं अणाचिक्खणीयं अवत्थंतरं पाविऊणमारसिउमाढत्तो । तओ मए पुच्छिओ केवली - भयवं ! किमेयं त्ति ? तेण भणियं दुरंतपुव्वभवन्भासओ पओ त्ति । मए भणियं - भयवं ! किमेस मं पञ्चहियाणइ ? भगवया भणियं- - न विसेसओ, किं तु सामन्नआत्ति । ईइसो चेव एस संसारसहावो त्ति, जम्मणंतर भवभत्था भावणा अणाभोगओ वि कंचि कालं अणुवत्तइति । तओ मए भणियंभयवं ! अह कस्स कम्मस्स एस विवागो ? भयवया भणियं - जाइमयमाणजणियस्स । मए भणियंआगतश्च तं गृहीत्वा । दृष्टश्च स मया पिशुका - क्षुद्रजन्तु - शतगृहीततनुरुहः, कीटनिकरसम्पादित क्षताङ्कित, अतिक्षीणशरीरः श्वसच्चलमा तजिह्वाकरालः, धवलविभाव्यमानदशनावलिः, मन्दमन्दं परिशक्नुवन् नातिदूरत एव शुनक इति । जातश्च मम तं तथाविधं दृष्ट्वा महान् संवेगः । चिन्तितं च मया - अहो दारुणः संसारवासः । एवंविधावसानानि अत्र जीवानां प्रेमविलसितानि । 1 अत्रान्तरे च प्राप्ता मम समीपं सह तेन ते पुरुषाः । निवेदितः तैः - देव ! एष शुनकः इति । ततः स मां दृष्ट्वा प्रचलदीर्घनाङ्गुलः वापजलभृतलोचनः, उद्ग्रीवमवचालिताननः किमपि तथाविधम् अनाख्यनीयमवस्थान्तरं प्राप्य आरसितुमारब्धीः । ततो मया पृष्टः केवली - भगवन् ! किमेतत् ? इति । तेन भणितम् - दुरन्तपूर्वभवाऽभ्यासतः प्रणय इति । मया भणितम् - भगवन् ! किमेष मां प्रत्यभिजानाति ? भगवता भणितम् न विशेषतः, किन्तु सामान्यत इति । ईदृश एव एष संसारस्वभाव इति जन्मान्तर-भवाभ्यस्ताः भावना अनभोगतोऽपि कंचित् कालम् अनुवर्तते इति । ततो मया भणितम् - भगवन् ! अथ कस्य कर्मणः एष विपाकः ? भगवता भणितम् - जातिमदमानजनितस्य ( कर्मणः) । मया भणितम् भगवन् ! कोऽपि च अनेन मानः कृत ? इति । भगवता भणितम् - छोटे-छोटे सैकड़ों जन्तुओं से युक्त बालोंवाले, कीड़ों के समूह द्वारा किये हुए घाव से युक्त, अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले, श्वास से जिसकी भयंकर जीभ चल रही थी, जिसके दाँतों की पंक्ति सफेद दिखाई पड़ रही थी, धीरे-धीरे चलते हुए ऐसे कुत्ते को कुछ ही समीप से मैंने देखा । उसे उस स्थिति में देखकर मुझे बहुत वैराग्य हो गया । मैंने सोचा - अहो ! संसार वास बहुत कष्टकर है । जीवों की प्रेम चेष्टाओं की समाप्ति इस प्रकार होती है । इसी बीच उसके साथ वे लोग मेरे समीप आ गये। उन्होंने निवेदन किया- "देव ! वह कुत्ता यही है । " तब उसने मुझे देखकर लम्बी पूँछ हिलायी, नेत्रों में आंसू भरे, गर्दन उठाकर मुँह को चलाया, कुछ इस प्रकार की अनिर्वचनीय अवस्था को पाकर शब्द करना शुरू किया। तब मैंने केवली से पूछा, "भगवन् ! यह क्या है ?" उन्होंने कहा, ' कठिनाई से अन्त होने वाले पूर्व भव के अभ्यास से यह प्रेम दिखला रहा है ।" मैंने कहा, "भगवन् ! क्या यह मुझे पहचानता है ?" मगवान् ने कहा, "विशेष रूप से नहीं, किन्तु सामान्य रूप से पहचानता है । इस संसार का स्वभाव ऐसा ही है । जन्म-जन्मान्तरों में अभ्यास की हुई भावना भोग में न आने की स्थिति में भी कुछ समय तक अनुसरण करती है ।" तब मैंने पूछा, "भगवन् ! यह किस कर्म का फल है ?" भगवान् ने कहा, "जाति के मदरूपी मान से उत्पन्न कर्म का फल है ।" मैंने कहा, "इसने क्या मान किया ?" भगवान् ने कहा, "सुनो, इसी पिछले १. दंसणावली । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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