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________________ योगीन्दुदेवविरचितः २३६ [ अ० २, दोहा ११८ जलमवेशरहितेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रामृल्यरत्नभाण्डपूर्णेन निजशुद्धात्मभावनापोतेन यौवनमहाहृदं ये तरन्ति त एव धन्यास्त एव सत्पुरुषा इति तात्पर्यम् ।। ११७ ।। किं बहुना विस्तरेण— Jain Education International मोक्खु जि साहिउ जिणवरहि छंडिवि बहु-विहु रज्जु | भिक्ख भरोडा जीव तुहुँ करहि ण अप्पर कज्जु ॥ ११८ ॥ मोक्षः एव साधितः जिनवरैः त्यक्त्वा बहुविधं राज्यम् । भिक्षाभोजन जीव त्वं करोषि न आत्मीयं कार्यम् ॥ ११८ ॥ मोक्खु जि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । मोक्खु जि साहिउ मोक्ष एव साधितः निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलङ्कस्यात्मन आत्यन्तिकस्वाभाविकज्ञानादिगुणास्पदमवस्थान्तरं मोक्षः स साधितः । कैः । जिणवरहिं जिनवरैः । किं कृत्वा । छंडिवि त्यक्त्वा । किम् । बहुविहु रज्जु सप्ताङ्गं राज्यम् । केन । भेदाभेदरत्नत्रयभावनाबलेन। एवं ज्ञाखा भिक्खभरोडा जीव भिक्षाभोजन हे जीव तुहुं लं करहि ण अप्पर कज्जु किं न करोषि आत्मीयं कार्यमिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च विशिष्टतपश्चरणं कर्तव्यमित्यभिप्रायः ।। ११८ ।। अथ हे जीव त्वमपि जिनभट्टारकवदष्टकर्मनिर्मूलनं कृत्वा मोक्षं गच्छेति संबोधयति — सत्पुरुष हैं, वे ही धन्य हैं यह सारांश जानना । बहुत विस्तारसे क्या लाभ है ? ||११७|| आगे मोक्षका कारण वैराग्यको दृढ करते हैं - [ जिनवरै: ] जिनेश्वरदेवने [ बहुविधं ] अनेक प्रकारका [ राज्यं ] राज्यका विभव [ त्यक्त्वा ] छोडकर [ मोक्ष एव ] मोक्षको ही [ साधितः ] साधन किया, परन्तु [ जीव] हे जीव, [ भिक्षाभोजन ] भिक्षासे भोजन करनेवाला [त्वं ] तू [आत्मीयं कार्यं] अपने आत्माका कल्याण भी [ न करोषि ] नहीं करता । भावार्थ - समस्त कर्ममल-कलंकसे रहित जो आत्मा उसके स्वाभाविक ज्ञानादि गुणोंका स्थान तथा संसार - अवस्थासे अन्य अवस्थाका होना, वह मोक्ष कहा जाता है, उसी मोक्षको वीतरागदेवने राज्यविभूति छोडकर सिद्ध किया । राज्यके सात अंग है, राजा, मंत्री, सेना वगैरह। ये जहाँ पूर्ण हों, वह उत्कृष्ट राज्य कहलाता है, वह राज्य तीर्थंकरदेवका है, उसको छोड़नेमें वे तीर्थंकर देरी नहीं करते । लेकिन तू निर्धन होकर भी आत्म-कल्याण नहीं करता । तू माया-जालको छोडकर महान पुरुषोंकी तरह आत्मकार्य कर । उन महान पुरुषोंने भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाके बलसे निजस्वरूपको जानकर विनाशीक राज्य छोडा, और अविनाशी राज्यके लिये उद्यमी हुए । यहाँ पर ऐसा व्याख्यान समझकर बाह्याभ्यंतर परिग्रहका त्याग करना, तथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर दुर्धर तप करना यह सारांश हुआ ||११८|| आगे हे जीव, तू भी श्री जिनराजकी तरह आठ कर्मोंका नाशकर मोक्षको जा, ऐसा समझाते हैं[जीव] हे जीव, [त्वं ] तू [ संसारे] संसार-वनमें [ भ्रमन् ] भटकता हुआ [ महद् दुःखं] महान दुःख For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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